चित्र : सौमेंद्र मजूमदार, कहानी : कपिल चांडक |
नांद से मुँह उठा कर जय बोला "मालिक, मालकिन को कह रहे थे की इस बार देखना अपनी जमीन सोना उगलेगी"
वीरू : "क्यों न हो? मालिक इस बार दूर शहर से अच्छे बीज लाये है, साथ ही कीड़ो की दवाई भी लाये है, पिछली बार कीड़ो ने बड़ा कहर बरपाया, रही कसर ख़राब मौसम ने कर दी थी"।
जय : "मालिक रोटी भी गिन कर खाए और हम गुड खाए, बैलों के भाग ऐसे तो नहीं देखें"।
वीरू : "किसान और बैल की किस्मत एक ही रात में लिखी जाती हैं मेरे भाई। कौन किसका सहारा हैं मरते दम तक तय नहीं होता"।
जय : "मालिक ने तो खुद अपनी किस्मत पर ताले लगा रखे है, मालिक के भाईसाहब को देखो, जगनू से जगन सेठ बन बैठा हैं, दस गाँव के सरदार मिल कर भी मालदारी में टिक ना पाये। सालों पहले एक फैक्ट्री को अपनी जमीन बेच शहर में बस गया, कपड़ों का व्यापार किया, देवयोग से परदेस तक उनके लिबास के अनुरागी बसे पड़े है"
वीरू : "जगन सेठ! दोज़ख में भी जगह ना मिले उस अधमी को; पहले बाउजी को झांसा दे कर बड़ी जमीन हथियाई, तीन गऊ, दौ बैल, बकरी सब हड़पी। यहाँ तक भी प्रयाशित करता तो शायद देवदूत नरक की यंत्रणाओं में पक्षपात कर लेते; पर वो छुरेबाज़ तो गाय, बैल-बकरी सब को कसाई खाने को बेच गया"
जय: "हमारे नक्षत्र ऊँचे थे जो छोटे भाई हरिया मालिक की बाँट में आये, नहीं हमारी खाल के जूते पहन कर कोई रस्ता नाप रहा होता। ये मालिक नहीं देवदूत हैं, आज तक छड़ नहीं उठाई, फूल की पंखुड़ी से भी खरोंच आये तो लपक कर वैद को बुला लाये"
इन बैलों को तंगी के दिनों में नांद में डाली गयी फ़ीकी सूखी घास भी इस खरे वात्सल्य के साथ स्वादपूर्ण लगती हैं। हरिया के नेकदिली और जगन सेठ की दयाहीनता को बढ़ा-चढ़ा कर बताने में खोये बैलों की संकेन्द्रता को धानु की खरखरायी टेर ने भेदा।
धानु : "पंडितजी के लड़के का टीका अचानक ही तय हो गया, अब एकाएक रुपये कहा से लाये? फ़सल कटेगी तब देंगे, ये बोल कर लिए थे। सारे पैसे बीज, खाद-पानी में लग गए, सुबह तकाज़ा कर गए, तीन दिन में देना है"
हरिया : "ऊपर वाले ने चिंता दी हैं तो दूर भी वो ही करेगा, नाहक़ ही फ़िकर कर रही हैं"
धानु : "गांव का कोई घर नहीं बचा जिसके उधार से हमारे घर रोटी नहीं सिकि हों, कहाँ से इंतेजाम हो? मैं तो कह-कह कर ठठरी हो गयी की शहर चल-चलो, भाई साहब भी कई मर्तबा बोल गए, लेकिन पता नहीं कौन खज़ाना गढ़ा हैं जो यही धूनी रमी रहती हैं"
दो दिन में खेत की लिखा-पढ़ी हो गयी, पांच रूपये सैकड़ा सूद पर लिए कर्ज़े से पंडितजी का हिसाब किया गया। पंडितजी के लड़के का टीका धूम धाम से हुआ, हरिया खूब नाचा। मालिक को ज़माने बाद उल्लासित देख, जय-वीरू ने भी आपस में विनोदपूर्ण सींग मिलाये।
एक-एक कर के सारे दिवस, धानु के पाकगृह के भंडारे की तरह तेजी से खर्च हुए। हरिया की मेहनत रंग लायी, धरती ने खूब सोना उगला, मटर की फसल आस-पास के खेतो को चिढ़ा रही थी।
उधर शहर से जगन सेठ का बड़ा बेटा ऋषि अपने पालतू कुत्ते डुग्गु के साथ हर वर्ष की भाँति छुट्टियाँ बिताने अपने हरिया चाचा के घर आया। ऋषि को प्रकृति का सानिध्य बहुत पसंद हैं। शहर की चिल्ल्पों से दूर प्राणवायु से पूर्ण निर्वात में बसेरा उसे बड़ा भाता हैं।
डुग्गु : "इतनी तेज गर्मी, मच्छर चैन नहीं ले रहे, बगल में किसीने खेंत सींचा हैं, यंहा तक कीचड़ आ रहा हैं, वहाँ एसी में पेडिग्री खाने को मिलता है, सोने को नरम-नरम बिस्तर हैं, मालकिन हफ्ते में एक बार शैम्पू से नहलाती हैं, बालों में कंघी करती हैं और यंहा के कुत्तो के शरीर जूओं से भरे हैं। छोटे मालिक (ऋषि) सेठ जी (जगन सेठ) को कह रहे थे की में तो डुग्गु के साथ वहीँ गाँव में बस जाऊंगा, अजीब ख़ब्ती हैं"
वीरू : "इतने नख़रे तो शहर की लड़कियों के नहीं होते, हा हा हा..."
जय-वीरू भी डुग्गु के साथ मखोली में जुट गए। रात भोजन पश्चात सब सुनहरे सुबह के सपनों में खो गए।
सुबह हरिया ने दोनों बेलो को बैलगाडी से जोड़ा और टिटकारी भरते हुए खेत के मटर को लेने चला, मटर के दाम भी बढे हुए हैं, "इस बार सारा कर्ज़ा चुका कर, खेत छुड़ाऊंगा, बैलो के लिए पक्का अस्तबल बनवाऊंगा, धानु को भी नए कपड़े और चूड़ी दिलाऊंगा फिर पूरे साल की रसद भंडारे में रखवा दूंगा" हरिया ख्याल करते बढ़ रहा था।
सहसा मौसम ने करवट ली, पूरा आसमान गाढ़ा हो गया, हरिया का दिल बैठ गया। जय-वीरू की उछृंखलता की उम्र मानो कट गयी, भारी ओलावृष्टि हुयी, देखते ही देखते खेतों का सोना पिघल कर कही लुप्त हो गया। हरिया को लगा जैसे उसके आखों के सामने कोई उस के बच्चे पर छुरी चला रहा हो और वो बस असहाय देख रहा हो।
घर पर धानु ज़र्द पड़ी थी मानों शरीर पर बिजली गिरी हो, हरिया के चेहरे का पक्का रंग वेदना की परकाष्ठा से और मलिन हो गया। जय-वीरू टकटकी लगाए शुन्य में विलुप्त जान पड़ते थे, वही डुग्गु जिसे खेतों से कोई विशेष मोह नहीं था, इस बात से शोकग्रस्त था की आज खाना मिलेगा या नहीं। ऋषि पास के ही जंगल में फेरी लगा कर लौटा था। रो-रो कर पथरा गयी आँखों और घुटे हुए गले के विसादपूर्ण गुटबंदी से धानु ने आह ली, "खेत भी गया, गाँव में कुछ रहा नहीं, ऋषि के साथ शहर चलते हैं, वहाँ से नयी शुरुआत करेंगे"।
हरिया : "मेरे बैल, मेरे बच्चे हैं, ये हैं तो सब हैं। इन्हे यहाँ ऐसे कैसे अकेला छोड़ जाउ?"
धनुः "इन्हे बेच देते है" हमारे खेत में ना सही किसी और के खेत में रहेंगे"
हरिया: "इन बे-जुबानो को कोई चाबुक दिखाए, नकेल डाले, सोच कर ही ह्रदय उठ जाता हैं" मैं अपने बच्चो को ऐसे नियति के भरोसे नहीं छोड़ सकता"
धानु : "इन्हे भी शहर ले चलो"
हरिया : "आधी से ज्यादा उम्र गाँव की मिट्टी में लोट कर निकाली हैं, शहर में खूंटे पर बाँध कर मुझे इन्हे मारना नहीं हैं"
ऋषि : "हरिया चाचा ठीक कह रहे हैं चाची, शहर में रखा क्या हैं? कर्कश कान फाड़ू शोर, चौबीसों घंटे कोल्हू के बैल की तरह दौड़ने वाले मशीनी आदमी, थोड़ी दिखावट, थोड़ी मिलावट और फिर उस पर छिड़की हुयी थोड़ी सजावट, यहाँ गाँव में फुर्सत हैं बेफिक्री, निर्दोषता हैं।
उधर जय ये बाते सुन डुग्गु और वीरू से बोला, "भूख हैं, बेबसी भी हैं यहाँ, पेट भरा हो तो फूलो से खुशबू आती हैं, सूरज से पहले छत हो तो घुटन नहीं सुकूं मिलता हैं। अगर ऋषि यहीं रहता हैं तो सालो बाद जब कभी अपनी बेटी पराई करेगा तो शहर का घर ही ढूंढेगा, बिटिया को गाँव में कभी नहीं देगा, और बेटों को शहर बसाएगा, उनसे कहेगा, हमने तो अपनी ज़िंदगी अभावो में काट ली, बस तुम्हारी संवर जाएं"
उधर हरिया, धानु और ऋषि से "शहर में भी जाना चाहता हु, मेरी भी इस इच्छा हैं की बचे हुए काले बाल वही सफ़ेद हो, लेकिन जब जय-वीरू का ख्याल आता हैं लगता हैं की किसीने दोनों पैरो में सौ-सौ किलो के पत्थर बांध दिए"
दोनों बैल भावपूर्ण सजल नेत्रों से मालिक की बातों का रस्वादन कर रहे थे की डुग्गु ने बीच में खलल डाला, "शहर में किसी चीज़ की कमी नहीं हैं, ये चाहिए फ़ोन घुमाओ, वहाँ जाना हैं गाडी उठाओं, हर बीमारी का इलाज हैं वहां के अस्पतालों में, पता नहीं छोटे मालिक की बुद्धि में सेंध लग गयी क्या? कहते हैं गाँव का जीवन सच्चा हैं, न कोई फ़िक्र न कोई आगे बढ़ने का दवाब"
वीरू : सरपंचजी का बेटा उस दिन पँचायत में कह रहा था की गाँव में कोई बड़ा स्कूल नहीं हैं, अस्पताल भी दूर हैं। हर गांववासी अपने बच्चो को भविष्य को ले कर चिंतित हैं। कोई बड़ी फैक्ट्री नहीं। काम धंधा नहीं। घर कच्चे हैं। पक्की सड़क का वादा हर चुनाव में कच्चा रह जाता हैं। लोग बेहतरी के लिए शहर जा रहे हैं, वहाँ ऊँची पढ़ाई कर के अच्छी कमाई कर रहे हैं, वहीँ शादी कर के पक्को घरो में बस जाते हैं"
जय : "इंसानो का तो भगवान ही मालिक है, इंसान किसी भी तरह से खुश नहीं नहीं है, उन्नति के लिए शहर जाता है, हर चीज़ पाने के बाद कहता हैं की वापस गाँव जाना है क्योंकि वहां पर बहुत कुछ छूट गया। गाँव में रहते हुए कहता है की गाँव में तरक्की नहीं ज़िंदगी बोझिल हैं, सुख सुविधाये नहीं हैं फिर वापस शहर भागता हैं। जो चीज़ उसे मिलती वो उसकी कद्र नहीं करता, अपनी जमीं को याद करना ग़लत नहीं हैं लेकिन अपनी वर्तमान स्थिति को सदैव कोसना ये जिसको इंसान से खुद चुना हैं, कहाँ की समझदारी हैं। हम जानवर मस्त हैं हर हाल में खुश रहते है"
काली रात के बाद सबेरा हमेशा नयी आशा ले कर आता हैं, लेकिन कुछ अभागो के लिए काली रात दिन भर रहती हैं। हरिया का अँधेरा अभी छटा नहीं था, डूबता सूरज को लोगों के लिए तमाशा बन जाता हैं। हरिया की कंगाली उसकी भलमानहसता से जल्दी प्रसिद्धि पा गयी, साहूकार ने तकादो के तीर से हरिया की प्रभुता को तार-तार कर दिया। अनंततः सूद चुकाने में विफल रहे किसान ने घर गिरवी रखवा सूदखोर से पीछा छुड़ाया।
हरिया का दीवालापन चरम पर था, मांस हड्डियों से चिपक गया, आँखे सिकुड़ कर गड्डो में जा गिरी, मन्दभाग्य धानु उम्र में दूनी हो गयी। बैलो की ठिठरिया निकलने लगी। लेकिन अभी तक सभी ज़िंदगी जीने की ज़िद पर डटे थे।
जय : "ओलो ने बड़ा जुल्म किया हैं। कई घर उजाड़ दिए। राघव काका ने तो पूरे परिवार को ही ज़हर दे कर सारे दुःखो से तार दिया। बंशी भी कई दिनों से लापता हैं लोगों को अंदेशा हैं की तालाब में कूद गया"
वीरू : "जय, ये कीड़े मारने वाली दवाई यहाँ किसने रखी?
जय : "बच गयी होगी पहले की; लेकिन पहले तो यहाँ नहीं थी, हे देव क्या चल रहा है इस घर में? मेरे भगवान, मालिक को दिग्भ्रमित होने से बचाये। सबने कितना ज़ोर दिया की जगन सेठ के पास चले जाओ, यहां तो दुर्दशा को ढोना ही हैं"
डुग्गु : "भाई मेरा मालिक कंगाल हो जाता तो मैं तो भाग निकलता, मैं क्यों अपनी जिंदगी तबाह करू इनके आगे।
जय-वीरू ने तिरस्कार भरी नज़रो से डुग्गु के इस कथन को दुत्कारा। फिर विचार किया की क्यों न हम लोग भाग जाए, हम ही न होंगे तो मालिक अपने बड़े भाई के पास चले जाएंगे और विभीषिका से छुटकारा पाएंगे, हमारे प्रति अगाध स्नेह ने ही तो इन्हे यहाँ जकड़ा हैं। लेकिन अगर भागे भी तो कहा आस-पास के गाँव से कौन हमें नहीं जानता, हरिया और उसके बैल तो यहाँ अलौकिक प्रीत का प्रतिरूप माने जाते हैं।
सुबह हरिया पास से सूखी घास मांग लाया, नाँद में डालते हुए बोला, बेटा थोड़े दिन की बात है, खली चोकर और गुड़ से नांद भर दूंगा। बैलो को देखा की सो रहे हैं, इतनी देर तक सो रहे हैं? हे राम! इनके मुह से झाग कैसे निकल रहा है, शरीर नीला पड़ गया, जीवन के सभी लक्षण विलुप्त हैं। हरिया को लगा किसी ने अँधेरी खाई में धक्का दे दिया, चिंगाड़ के साथ, किसी शव की भाँति जमीन पे जा पड़ा। हजारो अनवरत प्रहार झेल कर भी खड़ा रहने वाला हरिया, मेले में माँ बाप से बिछुड़े बालक सा बेसुध इधर-उधर भाग रहा था। पास खड़ा डुग्गु स्तब्ध था की मालिक के प्रति प्रणय की अति ये ही होती है? दोनों बैल इसलिए कीड़ो की दवाई (ज़हर) चाट गए ताकि इनके मालिक को इसे खाने की नौबत ना आये। किसान की खुदखुशी की खबरें तो आती रहती हैं, उसकी अकाल मौत को रोकने के लिए उसके बैल अपनी ईहलीला समाप्त कर दे संभवतया पहली बार ही हुआ होगा। हरिया को अपनी जकड़ से मुक्त कर दोनों बैलों ने उसके शहर जाने का विकल्प खोल दिया था। धन्य हैं हरिया और धन्य हैं हरिया के बैल जय-वीरू।
रचियता: कपिल चाण्डक
Author: Kapil Chandak