#गुज़रेज़माने (भाग-1) पिछले 2 सालों से मैं अपने पुराने दोस्तों, स्कूल टीचर्स और बचपन की गलियों में खोये अपनी पुरानी ठिठोलियों को खोज रहा हूँ, इसी सिलिसले में कुछ महीने पहले रविवार की एक ठंडी दोपहरी में ,मैं निकल पड़ा फिर से एक पुराने दोस्त को ढूंढने, पंवार ! हालाँकि काफी सोचने पर भी पंवार का फर्स्ट नेम याद नहीं आया, बस धुंधला सा याद था की फलां मोहल्ले की फलां गली में उसका वो एक मंज़िला खुला घर है। खोजबीन कर वहाँ पहुंचा, देखा दौड़ती गली के खुले घर अब गज भर चौड़ी गली के तीन मंज़िले मकान हो गए थे। एक घर के सामने साँसे ठिठकी, दिल उछला यही है ! यही घर हैं ! अब थोड़ा बड़ा हो गया, दीवारे समय के साथ उग कर छत से जा मिली। लगभग 14-15 साल से दिखने वाले एक किशोर को इशारे से बाहर बुलाया, पूछा यहाँ पंवार फॅमिली रहती है? उसने हां से सर हिलाया उसकी हां से मेरी आँखें ख़ुशी से संक्रमित हो गयी।
यहाँ वो रहते है क्या?
कौन? किसको पूछ रहे हो आप?
अरे वो ! क्या नाम है? पंवार हैं ना?
नाम बताईये कौन?
अरे बेटा नाम याद नहीं आ रहा, अच्छा मेरी एज़ का कोई है यंहा?
नहीं आपकी एज़ का तो कोई नहीं हैं।
अच्छा ! कौन-कौन है यहाँ नाम बताईये, आपके पापा का क्या नाम है ?
महेंद्र जी पंवार।
हाँ महेंद्र पंवार ! याद आया, यही नाम है, प्लीज़ उनको बुला दो। मैं उनके बचपन का दोस्त हूँ।
पापाss, उसने आवाज़ लगायी, छत से एक बुजुर्ग ने कछुए सी गर्दन बाहर निकाली, उनका पतला चेहरा शेविंग क्रीम से फूला था।
नहीं अंकल, आप नहीं आपके बेटे महेंद्र पंवार से मिलना हैं, मैं बोला।
मैं ही महेंद्र हूँ।
अच्छा ! सॉरी थोड़ा कन्फ्यूजन हो गया था। बोल कर में भारी मन से वापस मुड़ा।
अरे कपिल ! तुम कपिल ही हो ना, वो भागता हुआ आया और जोर से गले लगा लिया।
कुछ देर बाद हम दोनों पुरानी यादों पर खिलखिला रहे थे (साथ ही मैं शर्ट पर लगी शेविंग क्रीम को साफ़ भी कर रहा था) महेंद्र पंवार बहुत बदल गया था, समय ने उसके चेहरे पर अनगिनत अनुभवों की रेखाएं खींच दी थी, लेकिन दिल आज फिर बच्चा बन बैठा था।
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