Friday, February 17, 2017

बचपन का दोस्त (गुज़रेज़माने)


#गुज़रेज़माने (भाग-1) पिछले 2 सालों से मैं अपने पुराने दोस्तों, स्कूल टीचर्स और बचपन की गलियों में खोये अपनी पुरानी ठिठोलियों को खोज रहा हूँ, इसी सिलिसले में कुछ महीने पहले रविवार की एक ठंडी दोपहरी में ,मैं निकल पड़ा फिर से एक पुराने दोस्त को ढूंढने, पंवार ! हालाँकि काफी सोचने पर भी पंवार का फर्स्ट नेम याद नहीं आया, बस धुंधला सा याद था की फलां मोहल्ले की फलां गली में उसका वो एक मंज़िला खुला घर है। खोजबीन कर वहाँ पहुंचा, देखा दौड़ती गली के खुले घर अब गज भर चौड़ी गली के तीन मंज़िले मकान हो गए थे। एक घर के सामने साँसे ठिठकी, दिल उछला यही है ! यही घर हैं ! अब थोड़ा बड़ा हो गया, दीवारे समय के साथ उग कर छत से जा मिली। लगभग 14-15 साल से दिखने वाले एक किशोर को इशारे से बाहर बुलाया, पूछा यहाँ पंवार फॅमिली रहती है? उसने हां से सर हिलाया उसकी हां से मेरी आँखें ख़ुशी से संक्रमित हो गयी।
यहाँ वो रहते है क्या?
कौन? किसको पूछ रहे हो आप?
अरे वो ! क्या नाम है? पंवार हैं ना?
नाम बताईये कौन?
अरे बेटा नाम याद नहीं आ रहा, अच्छा मेरी एज़ का कोई है यंहा?
नहीं आपकी एज़ का तो कोई नहीं हैं।
अच्छा ! कौन-कौन है यहाँ नाम बताईये, आपके पापा का क्या नाम है ?
महेंद्र जी पंवार।
हाँ महेंद्र पंवार ! याद आया, यही नाम है, प्लीज़ उनको बुला दो। मैं उनके बचपन का दोस्त हूँ।
पापाss, उसने आवाज़ लगायी, छत से एक बुजुर्ग ने कछुए सी गर्दन बाहर निकाली, उनका पतला चेहरा शेविंग क्रीम से फूला था।
नहीं अंकल, आप नहीं आपके बेटे महेंद्र पंवार से मिलना हैं, मैं बोला।
मैं ही महेंद्र हूँ।
अच्छा ! सॉरी थोड़ा कन्फ्यूजन हो गया था। बोल कर में भारी मन से वापस मुड़ा।

अरे कपिल ! तुम कपिल ही हो ना, वो भागता हुआ आया और जोर से गले लगा लिया।
कुछ देर बाद हम दोनों पुरानी यादों पर खिलखिला रहे थे (साथ ही मैं शर्ट पर लगी शेविंग क्रीम को साफ़ भी कर रहा था) महेंद्र पंवार बहुत बदल गया था, समय ने उसके चेहरे पर अनगिनत अनुभवों की रेखाएं खींच दी थी, लेकिन दिल आज फिर बच्चा बन बैठा था।


#गुज़रेज़माने (भाग-1) #दोस्त #यादें #Friends

Wednesday, November 23, 2016

बेघर (आपकी मदद इन्हे घर पंहुचा सकती है।)


चार दिन पहले ऑफिस जाते समय बेनाड रोड से दिल्ली बायपास के करीब ये बुजुर्ग सड़क किनारे बैठे आती-जाती गाड़ियों को हाथो से रोकने का ईशारा करते दिखें, मैं ऑफिस के लिए हमेशा की तरह लेट हो रहा था, मैंने भी गाडी नहीं रोकी। करीब 100 मीटर आगे आने के बाद मन नहीं माना, वापस पीछे गया। मुझे गाडी से उतरते देख ये बुजुर्ग अपना मैला सा भारी लगने वाला बैग उठा कर मेरी तरफ रेंगते से बढे, मैं दौड़ कर पंहुचा, पूछा की उन्हें क्या चाहिए? वो गाड़ियों को क्यों रोक रहे हैं? उनकी हालात बहुत दयनीय थी, शायद कई दिनों से नहाये नहीं थे, आस पास तेज दुर्गन्ध भभक रही थी, दोनों आखों में मोतियाबिंद था, ना तो ढंग से खड़े हो पा रहे थे ना ही बोल पा रहे थे। उन्होंने मेरे हर सवाल को लगभग अनसुना करते हुए टूटी अस्पष्ट आवाज में पुछा की मैं उन्होंने घर पंहुचा दू। मैंने कई बार पूछा आपका घर कहा हैं? कोई गली, कोई शहर कुछ भी याद आ रहा है? हर बार वही बुझी हताश सी आवाज में जवाब आता की मुझे घर जाना है। मैंने आस-पास भागते लोगो को रोककर पूछा की शायद वो उनकी बोली या आवाज समझ पाए। लोगो की प्रतिक्रिया अनपेक्षित थी, "सर ये पागल है" "आप किसके चक्कर में पड़ गए". 

थोड़े अतंराल के बाद उन अंकल ने लड़खड़ाई आवाज में कहा "अखड़डाम जाना हैं"! 

"अक्षरधाम", मैंने इसमें सुधार किया। "आप अक्षर धाम टेम्पल की बात कर रहे हो जो वैशाली नगर मैं है?" 

उन्होंने हां की दिशा में सर हिला दिया। 

"हाँ अखड़डाम पहुंचा दो, वहाँ से मैं घर चला जाऊंगा, पास में हैं घर वह से" उन्होंने कहा। 

मैंने उनका बैग उठाया और उन्होंने गाडी मैं बैठाया। पूरे रास्ते पूछता रहा की "अक्षरधाम के आस-पास ही घर हैं ना, आप के घर मैं और कौन-2 है? आप कब से घर नहीं गए? आप को कुछ भी याद है तो बताईये" लेकिन उनके होंठो से एक शब्द भी नहीं फिसला। 

करीब आधे घंटे में अक्षरधाम आया, मैं सहर्ष बोला अंकल मंदिर आ गया। 

"ये नहीं है, चलो घर चलो" अंकल बोले। मैं असमंजस में पड़ गया, "अंकल आपने ही तो कहा था अक्षरधाम जो वैशाली नगर मैं है, यही तो है, अगर ये नहीं है तो मुझे थोड़ा सा पता बताईये मैं छोड़ दूंगा"

उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया, मैं देर तक अलग अलग तरह से पूछता रहा, लेकिन वो मौन ही रहे, फिर कहा की मुझे यही छोड़ दो, मैं समझ गया की उन्हें नहीं पता की उनका घर कहा हैं, हैं भी या नहीं ये भी नहीं पता। मैंने खाने के लिए पूछा उन्होंने मन कर दिया, उनकी जेब में कुछ रुपये रख कर, मैं अकेला ऑफिस के लिए निकल गया। काम की व्यस्तता के बीच बीच मैं उनका चेहरा सामने आता रहा। आज चार दिन हो गए मन कुछ ख़राब सा हो गया। पता नहीं उन्होंने कभी अपना घर और घर वाले भी मिलेंगे या नहीं। इस पोस्ट को पढ़ने वाला कोई भी रीडर अगर इन्हें पहचानता हो तो प्लीज आगे आये, इनको मदद की बहुत ज्यादा जरूरत है। ये आपको अभी जयपुर के वैशाली नगर मैं अक्षर धाम मंदिर के आस पास मिल सकते है।

या मुझे से संपर्क करे

कपिल चांडक (Kapil Chandak)

Sunday, November 13, 2016

मेरी पांच साल की बेटी प्रिशा

6 दिसम्बर को मेरी पत्नी को एक पारिवारिक शादी में शामिल होने के लिए तीन दिनों के लिए जयपुर से बाहर जाना पड़ा। ठण्ड, लंबी दूरी और अन्य कारणों से तय हुआ की मेरी पांच साल की बेटी प्रिशा शादी में नहीं जाएगी और मेरे साथ घर पर ही रहेगी। हम लोग मम्मी के साथ रहते है, इसलिए मेरे ऑफिस जाने पर उसकी दादी उसका ध्यान रख लेगी। ये पहला मौका था जब प्रिशा, मम्मी के बिना केवल पापा के साथ रहने वाली थी। रोज रात 2:30 बजे का अलार्म सारे मोबाइल्स और घड़ियों में लगाया गया क्योंकि प्रिशा को टॉयलेट जाना होता है। सुबह 5:30 का अलार्म भी सेट किया ताकि मैं ऑफिस के लिए तैयार हो कर प्रिशा को तैयार कर के सही समय स्कूल ले जा सकु। उसकी मम्मी तो उसे जल्दी तैयार कर देती है और प्रिशा मम्मी की बात भी मान जाती है। लेकिन मुझे अपने हर काम के लिए चाहे ढूध पिलाना हो या नहलाना हो, स्कूल के लिए तैयार करना हो या फिर स्कूल जाने के लिए मनाना हो इन सबके लिए सैकड़ो जतन करने पड़ते हैं, जैसे कहानियां सुनाना, कभी गाना गाना, कभी पागलपंती करना, कभी भूत या जोकर की एक्टिंग, कभी नाचना। 

सुबह उसे बिस्तर से उठा कर गोदी में ले कर घूमना (ताकि उसकी नींद खुल जाए), उसे नहलाना, कपडे पहनना, बीच-बीच में प्यार दुलार करना बड़ा ही अद्धभुत सुख था। शाम को ऑफिस से आने के बाद रात तक उसके साथ खेलता रहा, पर रह-रह कर वो मम्मी का नाम लेती रही, मैं उसका ध्यान भटकाता रहा, अंततः सोते समय वो रोने लगी और मम्मी-मम्मी करती रही, कहानियाँ, मोबाइल गेम, डोरेमोन, भूत की एक्टिंग, जोकरगिरी, कंधे की सवारी, नर्सरी राईम्स सारे हथकंडे नाकाम रहे।

अगले दिन शाम को प्रिशा को ले कर एक शादी में गया। प्रिशा ने कहा ""पापा मुझे कुछ नहीं खाना, मैं सुपरगर्ल हूँ मुझे भूख नहीं लगती, क्योंकि मैं स्ट्रांग हूँ" मैंने बहुत समझाया, फिर उसने मुझे समझ दिया की नहीं मतलब नहीं। मैंने वहाँ कुछ छोटे बच्चों को इकट्ठा किया और प्रिशा को ले कर करीब आधे घंटे स्कूल-स्कूल खेला, फिर प्रिशा ने इसका मुझे इनाम दिया और खाना खाया। रास्ते में आते समय उसने बताया के पेट-दर्द हो रहा है, पूरे रास्ते उसे बातों में लगा कर हँसाता रहा। घर पहुँच कर पेट-दर्द की दवाई देने की बहुत युक्तियों के बाद उसे दवाई पिलाने में कामयाब हो गया। इससे मुझे बचपन की वो बात याद आ गयी जब मैं भी दवा लेने में बहुत ड्रामा करता था और पापा दवाई को किसी मिठाई के बीच में दबा कर दे देते थे और अक्सर मैं मिठाई खा कर दवा को बाहर ही फ़ैंकने मैं सफल हो ही जाता था।

तीन दिनों का अनुभव अत्यंत आनदंदायक रहा। लाख कोशिशो के बाद भी प्रिशा मम्मी को याद करना नहीं भूलती थी। खैर मैं तो कुछ नहीं हूं, शायद भगवान भी माँ की जगह नहीं ले सकते।

By Kapil Chandak (कपिल चांडक)

Wednesday, October 14, 2015

हरिया के बैल (कहानी)

चित्र : सौमेंद्र मजूमदार, कहानी : कपिल चांडक 
हरिया के दो बैल, जय-वीरू उसके घर के चिराग हैं। हरिया और धानु के कोई जन्माना (संतान) तो था नहीं, इन बैलो में उनके प्राण रमे थे। खली-चोकर उनको पहले, बाद में चूल्हे को आग दिखाई जाती थी। पछाई जाति के बैल, ऊंचा डील-डोल, बड़े बड़े नुकीले सींग, पठ्ठे भरे हुए, लेकिन सीधे इतने की गऊ भी झेंप जाए। हरिया खेत से निकलता तो लगता दो गबरू जवान बेटे का अक्खड़ बाप इठला रहा हो।  

नांद से मुँह उठा कर जय बोला "मालिक, मालकिन को कह रहे थे की इस बार देखना अपनी जमीन सोना उगलेगी"
वीरू : "क्यों न हो? मालिक इस बार दूर शहर से अच्छे बीज लाये है, साथ ही कीड़ो की दवाई भी लाये है, पिछली बार कीड़ो ने बड़ा कहर बरपाया, रही कसर ख़राब मौसम ने कर दी थी"।

जय : "मालिक रोटी भी गिन कर खाए और हम गुड खाए, बैलों के भाग ऐसे तो नहीं देखें"।

वीरू : "किसान और बैल की किस्मत एक ही रात में लिखी जाती हैं मेरे भाई। कौन किसका सहारा हैं मरते दम तक तय नहीं होता"।

जय : "मालिक ने तो खुद अपनी किस्मत पर ताले लगा रखे है, मालिक के भाईसाहब को देखो, जगनू से जगन सेठ बन बैठा हैं, दस गाँव के सरदार मिल कर भी मालदारी में टिक ना पाये। सालों पहले एक फैक्ट्री को अपनी जमीन बेच शहर में बस गया, कपड़ों का व्यापार किया, देवयोग से परदेस तक उनके लिबास के अनुरागी बसे   पड़े  है"

वीरू : "जगन सेठ! दोज़ख में भी जगह ना मिले उस अधमी को; पहले बाउजी को झांसा दे कर बड़ी जमीन हथियाई, तीन गऊ, दौ  बैल, बकरी सब हड़पी। यहाँ तक भी प्रयाशित करता तो शायद देवदूत नरक की यंत्रणाओं में पक्षपात कर लेते; पर वो छुरेबाज़ तो गाय, बैल-बकरी सब को कसाई खाने को बेच गया"

जय: "हमारे नक्षत्र ऊँचे थे जो छोटे भाई हरिया मालिक की बाँट में आये, नहीं हमारी खाल के जूते पहन कर कोई  रस्ता नाप रहा होता। ये मालिक नहीं देवदूत हैं, आज तक छड़ नहीं उठाई, फूल की पंखुड़ी से भी खरोंच आये तो लपक कर वैद को बुला लाये"

इन बैलों को तंगी के दिनों में नांद में डाली गयी फ़ीकी सूखी घास भी इस खरे वात्सल्य के साथ स्वादपूर्ण लगती हैं। हरिया के नेकदिली और जगन सेठ की दयाहीनता को बढ़ा-चढ़ा कर बताने में खोये बैलों की संकेन्द्रता को धानु की खरखरायी  टेर ने भेदा।

धानु : "पंडितजी के लड़के का टीका अचानक ही तय हो गया, अब एकाएक रुपये कहा से लाये? फ़सल कटेगी तब देंगे, ये बोल कर लिए थे। सारे पैसे बीज, खाद-पानी में लग गए, सुबह तकाज़ा कर गए, तीन दिन में देना है"

हरिया : "ऊपर वाले ने चिंता दी हैं तो दूर भी वो ही करेगा, नाहक़ ही फ़िकर कर रही हैं"

धानु : "गांव का कोई घर नहीं बचा जिसके उधार से हमारे घर रोटी नहीं सिकि हों, कहाँ से इंतेजाम हो? मैं तो कह-कह कर ठठरी हो गयी की शहर चल-चलो, भाई साहब भी कई मर्तबा बोल गए, लेकिन पता नहीं कौन खज़ाना गढ़ा हैं जो यही धूनी रमी रहती हैं"

दो दिन में खेत की लिखा-पढ़ी हो गयी, पांच रूपये सैकड़ा सूद पर लिए कर्ज़े से पंडितजी का हिसाब किया गया। पंडितजी के लड़के का टीका धूम धाम से हुआ, हरिया खूब नाचा।  मालिक को ज़माने बाद उल्लासित देख, जय-वीरू ने भी आपस में विनोदपूर्ण सींग मिलाये।

एक-एक कर के सारे दिवस, धानु के पाकगृह के भंडारे की तरह तेजी से खर्च हुए। हरिया की मेहनत रंग लायी, धरती ने खूब सोना उगला, मटर की फसल आस-पास के खेतो को चिढ़ा रही थी।

उधर शहर से जगन सेठ का बड़ा बेटा ऋषि अपने पालतू कुत्ते डुग्गु के साथ हर वर्ष की भाँति छुट्टियाँ बिताने अपने हरिया चाचा के घर आया। ऋषि को प्रकृति का सानिध्य बहुत पसंद हैं। शहर की चिल्ल्पों से दूर प्राणवायु से पूर्ण निर्वात में बसेरा उसे बड़ा भाता हैं। 

डुग्गु : "इतनी तेज गर्मी, मच्छर चैन नहीं ले रहे, बगल में किसीने खेंत सींचा हैं, यंहा तक कीचड़ आ रहा हैं, वहाँ एसी में पेडिग्री खाने को मिलता है, सोने को नरम-नरम बिस्तर हैं, मालकिन हफ्ते में एक बार शैम्पू से नहलाती हैं, बालों में कंघी करती हैं और यंहा के कुत्तो के शरीर जूओं से भरे हैं। छोटे मालिक (ऋषि) सेठ जी (जगन सेठ) को कह रहे थे की में तो डुग्गु के साथ वहीँ गाँव में बस जाऊंगा, अजीब ख़ब्ती हैं"

वीरू : "इतने नख़रे तो शहर की लड़कियों के नहीं होते, हा हा हा..."

जय-वीरू भी डुग्गु के साथ मखोली में जुट गए। रात भोजन पश्चात सब सुनहरे सुबह के सपनों में खो गए।


सुबह हरिया ने दोनों बेलो को बैलगाडी से जोड़ा और टिटकारी भरते हुए खेत के मटर को लेने चला, मटर के दाम भी बढे हुए हैं, "इस बार सारा कर्ज़ा चुका कर, खेत छुड़ाऊंगा, बैलो के लिए पक्का अस्तबल बनवाऊंगा, धानु को भी नए कपड़े और चूड़ी दिलाऊंगा फिर पूरे साल की रसद भंडारे में रखवा दूंगा" हरिया ख्याल करते बढ़ रहा था।

सहसा मौसम ने करवट ली, पूरा आसमान गाढ़ा हो गया, हरिया का दिल बैठ गया।  जय-वीरू की उछृंखलता की उम्र मानो कट गयी, भारी ओलावृष्टि हुयी, देखते ही देखते खेतों का सोना पिघल कर कही लुप्त हो गया।  हरिया को लगा जैसे उसके आखों के सामने कोई उस के बच्चे पर छुरी चला रहा हो और वो बस असहाय देख रहा हो।

घर पर धानु ज़र्द पड़ी थी मानों शरीर पर बिजली गिरी हो, हरिया के चेहरे का पक्का रंग वेदना की परकाष्ठा से और मलिन हो गया। जय-वीरू टकटकी लगाए शुन्य में विलुप्त जान पड़ते थे, वही डुग्गु जिसे खेतों से कोई विशेष मोह नहीं था, इस बात से शोकग्रस्त था की आज खाना मिलेगा या नहीं। ऋषि पास के ही जंगल में फेरी लगा कर लौटा था। रो-रो कर पथरा  गयी आँखों और घुटे हुए गले के विसादपूर्ण गुटबंदी से धानु ने आह ली, "खेत भी गया, गाँव में कुछ रहा नहीं, ऋषि के साथ शहर चलते हैं, वहाँ से नयी शुरुआत करेंगे"।

हरिया : "मेरे बैल, मेरे बच्चे हैं, ये हैं तो सब हैं। इन्हे यहाँ ऐसे कैसे अकेला छोड़ जाउ?"
धनुः "इन्हे बेच देते है" हमारे खेत में ना सही किसी और के खेत में रहेंगे"
हरिया: "इन बे-जुबानो को कोई चाबुक दिखाए, नकेल डाले, सोच कर ही ह्रदय उठ जाता हैं" मैं अपने बच्चो को ऐसे नियति के भरोसे नहीं छोड़ सकता"
धानु : "इन्हे भी शहर ले चलो"
हरिया : "आधी से ज्यादा उम्र गाँव की मिट्टी में लोट कर निकाली हैं, शहर में खूंटे पर बाँध कर मुझे इन्हे मारना नहीं हैं"

ऋषि : "हरिया चाचा ठीक कह रहे हैं चाची, शहर में रखा क्या हैं? कर्कश कान फाड़ू शोर, चौबीसों घंटे कोल्हू के बैल की तरह दौड़ने वाले मशीनी आदमी, थोड़ी दिखावट, थोड़ी मिलावट और फिर उस पर छिड़की हुयी थोड़ी सजावट, यहाँ गाँव में फुर्सत हैं बेफिक्री, निर्दोषता हैं।

उधर जय ये बाते सुन डुग्गु और वीरू से बोला, "भूख हैं, बेबसी भी हैं यहाँ, पेट भरा हो तो फूलो से खुशबू आती हैं, सूरज से पहले छत हो तो घुटन नहीं सुकूं मिलता हैं। अगर ऋषि यहीं रहता हैं तो सालो बाद जब कभी अपनी बेटी पराई करेगा तो शहर का घर ही ढूंढेगा, बिटिया को गाँव में कभी नहीं देगा, और बेटों को शहर बसाएगा, उनसे कहेगा, हमने तो अपनी ज़िंदगी अभावो में काट ली, बस तुम्हारी संवर जाएं" 

उधर हरिया, धानु  और ऋषि से "शहर में भी जाना चाहता हु, मेरी भी इस इच्छा हैं की बचे हुए काले बाल वही सफ़ेद हो, लेकिन जब जय-वीरू का ख्याल आता हैं लगता हैं की किसीने दोनों पैरो में सौ-सौ किलो के पत्थर बांध दिए"

दोनों बैल भावपूर्ण सजल नेत्रों से मालिक की बातों का रस्वादन कर रहे थे की डुग्गु ने बीच में खलल डाला, "शहर में किसी चीज़ की कमी नहीं हैं, ये चाहिए फ़ोन घुमाओ, वहाँ जाना हैं गाडी उठाओं, हर बीमारी का इलाज हैं वहां के अस्पतालों में, पता नहीं छोटे मालिक की बुद्धि में सेंध लग गयी क्या? कहते हैं गाँव का जीवन  सच्चा हैं, न कोई फ़िक्र न कोई आगे बढ़ने का दवाब"            
  
वीरू : सरपंचजी का बेटा उस दिन पँचायत में कह रहा था की गाँव में कोई बड़ा स्कूल नहीं हैं, अस्पताल भी दूर हैं। हर गांववासी अपने बच्चो को भविष्य को ले कर चिंतित हैं। कोई बड़ी फैक्ट्री नहीं। काम धंधा नहीं। घर कच्चे हैं।  पक्की सड़क का वादा हर चुनाव में कच्चा रह जाता हैं। लोग बेहतरी के लिए शहर जा रहे हैं, वहाँ ऊँची पढ़ाई कर के अच्छी कमाई कर रहे हैं, वहीँ शादी कर के पक्को घरो में बस जाते हैं"

जय : "इंसानो का तो भगवान ही मालिक है, इंसान किसी भी तरह से खुश नहीं नहीं है, उन्नति के लिए शहर जाता है, हर चीज़ पाने के बाद कहता हैं की वापस गाँव जाना है क्योंकि वहां पर बहुत कुछ छूट गया। गाँव में रहते हुए कहता है की गाँव में तरक्की नहीं ज़िंदगी बोझिल हैं, सुख सुविधाये नहीं हैं फिर वापस शहर भागता हैं। जो चीज़ उसे मिलती वो उसकी कद्र नहीं करता, अपनी जमीं को याद करना ग़लत नहीं हैं लेकिन अपनी वर्तमान स्थिति को सदैव कोसना ये जिसको इंसान से खुद चुना हैं, कहाँ की समझदारी हैं। हम जानवर मस्त हैं हर हाल में खुश रहते है"

काली रात के बाद सबेरा हमेशा नयी आशा ले कर आता हैं, लेकिन कुछ अभागो के लिए काली रात दिन भर रहती हैं।  हरिया का अँधेरा अभी छटा नहीं था, डूबता सूरज को लोगों के लिए तमाशा बन जाता हैं। हरिया की कंगाली उसकी भलमानहसता से जल्दी प्रसिद्धि पा गयी, साहूकार ने तकादो के तीर से हरिया की प्रभुता को तार-तार कर दिया। अनंततः सूद चुकाने में विफल रहे किसान ने घर गिरवी रखवा सूदखोर से पीछा छुड़ाया।

हरिया का दीवालापन चरम पर था,  मांस हड्डियों से चिपक गया, आँखे सिकुड़ कर गड्डो में जा गिरी, मन्दभाग्य धानु उम्र में दूनी हो गयी। बैलो की ठिठरिया निकलने लगी। लेकिन अभी तक सभी ज़िंदगी जीने की ज़िद पर डटे थे।

जय : "ओलो ने बड़ा जुल्म किया हैं। कई घर उजाड़ दिए। राघव काका ने तो पूरे परिवार को ही ज़हर दे कर सारे दुःखो से तार दिया। बंशी भी कई दिनों से लापता हैं लोगों को अंदेशा हैं की तालाब में कूद गया"  
वीरू : "जय, ये कीड़े मारने वाली दवाई यहाँ किसने रखी?
जय : "बच गयी होगी पहले की; लेकिन पहले तो यहाँ नहीं थी, हे देव क्या चल रहा है इस घर में?  मेरे भगवान, मालिक को दिग्भ्रमित होने से बचाये। सबने कितना ज़ोर दिया की जगन सेठ के पास चले जाओ, यहां तो दुर्दशा को ढोना ही हैं"

डुग्गु : "भाई मेरा मालिक कंगाल हो जाता तो मैं तो भाग निकलता, मैं क्यों अपनी जिंदगी तबाह करू इनके आगे।

जय-वीरू ने तिरस्कार भरी नज़रो से डुग्गु के इस कथन को दुत्कारा।  फिर विचार किया की क्यों न हम लोग भाग जाए, हम ही न होंगे तो मालिक अपने बड़े भाई के पास चले जाएंगे और विभीषिका से छुटकारा पाएंगे, हमारे प्रति अगाध स्नेह ने ही तो इन्हे यहाँ जकड़ा हैं।  लेकिन अगर भागे भी तो कहा आस-पास के गाँव से कौन हमें नहीं जानता, हरिया और उसके बैल तो यहाँ अलौकिक प्रीत का प्रतिरूप माने  जाते हैं।

सुबह हरिया पास से सूखी घास मांग लाया, नाँद में डालते हुए बोला, बेटा थोड़े दिन की बात है, खली चोकर और गुड़  से नांद भर दूंगा। बैलो को देखा की सो रहे हैं, इतनी देर तक सो रहे हैं? हे राम! इनके मुह से झाग कैसे निकल रहा है, शरीर नीला पड़ गया, जीवन के सभी लक्षण विलुप्त हैं।  हरिया को लगा किसी ने अँधेरी खाई में धक्का दे दिया, चिंगाड़ के साथ, किसी शव की भाँति जमीन पे जा पड़ा। हजारो अनवरत प्रहार झेल कर भी खड़ा रहने वाला हरिया, मेले में माँ बाप से बिछुड़े बालक सा बेसुध इधर-उधर भाग रहा था। पास खड़ा डुग्गु स्तब्ध था की मालिक के प्रति प्रणय की अति ये ही होती है? दोनों बैल इसलिए कीड़ो की दवाई (ज़हर) चाट गए ताकि इनके मालिक को इसे खाने की नौबत ना आये। किसान की खुदखुशी की खबरें तो आती रहती हैं, उसकी अकाल मौत को रोकने के लिए उसके बैल अपनी ईहलीला समाप्त कर दे संभवतया पहली बार ही हुआ होगा। हरिया को अपनी जकड़ से मुक्त कर दोनों बैलों ने उसके शहर जाने का विकल्प खोल दिया था। धन्य हैं हरिया और धन्य हैं हरिया के बैल जय-वीरू। 

रचियता: कपिल  चाण्डक 
Author: Kapil Chandak

Monday, August 24, 2015

O Sanam (Lucky Ali) by Kapil Chandak



It's A fan made video dedicated to Lucky Ali Sir.
Singer : Kapil Chandak, Guitarist : Bhakt Bahadur Thapa

Plz do not expect professional singing :P
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