6 दिसम्बर को मेरी पत्नी को एक पारिवारिक शादी में शामिल होने के लिए तीन दिनों के लिए जयपुर से बाहर जाना पड़ा। ठण्ड, लंबी दूरी और अन्य कारणों से तय हुआ की मेरी पांच साल की बेटी प्रिशा शादी में नहीं जाएगी और मेरे साथ घर पर ही रहेगी। हम लोग मम्मी के साथ रहते है, इसलिए मेरे ऑफिस जाने पर उसकी दादी उसका ध्यान रख लेगी। ये पहला मौका था जब प्रिशा, मम्मी के बिना केवल पापा के साथ रहने वाली थी। रोज रात 2:30 बजे का अलार्म सारे मोबाइल्स और घड़ियों में लगाया गया क्योंकि प्रिशा को टॉयलेट जाना होता है। सुबह 5:30 का अलार्म भी सेट किया ताकि मैं ऑफिस के लिए तैयार हो कर प्रिशा को तैयार कर के सही समय स्कूल ले जा सकु। उसकी मम्मी तो उसे जल्दी तैयार कर देती है और प्रिशा मम्मी की बात भी मान जाती है। लेकिन मुझे अपने हर काम के लिए चाहे ढूध पिलाना हो या नहलाना हो, स्कूल के लिए तैयार करना हो या फिर स्कूल जाने के लिए मनाना हो इन सबके लिए सैकड़ो जतन करने पड़ते हैं, जैसे कहानियां सुनाना, कभी गाना गाना, कभी पागलपंती करना, कभी भूत या जोकर की एक्टिंग, कभी नाचना।
सुबह उसे बिस्तर से उठा कर गोदी में ले कर घूमना (ताकि उसकी नींद खुल जाए), उसे नहलाना, कपडे पहनना, बीच-बीच में प्यार दुलार करना बड़ा ही अद्धभुत सुख था। शाम को ऑफिस से आने के बाद रात तक उसके साथ खेलता रहा, पर रह-रह कर वो मम्मी का नाम लेती रही, मैं उसका ध्यान भटकाता रहा, अंततः सोते समय वो रोने लगी और मम्मी-मम्मी करती रही, कहानियाँ, मोबाइल गेम, डोरेमोन, भूत की एक्टिंग, जोकरगिरी, कंधे की सवारी, नर्सरी राईम्स सारे हथकंडे नाकाम रहे।
अगले दिन शाम को प्रिशा को ले कर एक शादी में गया। प्रिशा ने कहा ""पापा मुझे कुछ नहीं खाना, मैं सुपरगर्ल हूँ मुझे भूख नहीं लगती, क्योंकि मैं स्ट्रांग हूँ" मैंने बहुत समझाया, फिर उसने मुझे समझ दिया की नहीं मतलब नहीं। मैंने वहाँ कुछ छोटे बच्चों को इकट्ठा किया और प्रिशा को ले कर करीब आधे घंटे स्कूल-स्कूल खेला, फिर प्रिशा ने इसका मुझे इनाम दिया और खाना खाया। रास्ते में आते समय उसने बताया के पेट-दर्द हो रहा है, पूरे रास्ते उसे बातों में लगा कर हँसाता रहा। घर पहुँच कर पेट-दर्द की दवाई देने की बहुत युक्तियों के बाद उसे दवाई पिलाने में कामयाब हो गया। इससे मुझे बचपन की वो बात याद आ गयी जब मैं भी दवा लेने में बहुत ड्रामा करता था और पापा दवाई को किसी मिठाई के बीच में दबा कर दे देते थे और अक्सर मैं मिठाई खा कर दवा को बाहर ही फ़ैंकने मैं सफल हो ही जाता था।
तीन दिनों का अनुभव अत्यंत आनदंदायक रहा। लाख कोशिशो के बाद भी प्रिशा मम्मी को याद करना नहीं भूलती थी। खैर मैं तो कुछ नहीं हूं, शायद भगवान भी माँ की जगह नहीं ले सकते।
By Kapil Chandak (कपिल चांडक)
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