Wednesday, July 31, 2013

नन्ही का देश (कहानी)



"शैली, पता है आज मेरे पापा आ रहे है सात दिन यही रहेंगे मेरे जन्मदिन तक" 

विद्यालय में छुट्टी की घंटी की सुहानी गुंजन के साथ 'नन्ही' के पैरो में मानो पंख लग गए। 
यो ओ"… वन में दौड़ते हिरनों की भांति कुलांचे भरती हुयी नन्ही बाहर की और भागी।

इस उपक्रम में साइकिल सवार ग्वाले ने अपना संतुलन खोया, पडौसी चाची की महत्वाकांशी रंगोली की शिनाख्त मुश्किल हुयी, आठ साल के बबलू की पतंग ने आसमान की जगह सड़क पर बह रहे पानी में अपनी नियति ढूंढी, बछड़े ने मासूम गोदी में प्यार पाया, दामोदर काका के खेतो ने कुछ गन्ने और गंवाए, लाला ने जुबानी खर्चे की कीमत पर मिठाई का त्याग नहीं करने की हिमाकत पर ठेंगा और कंजूस का तमगा पाया, पंडित जी ने भगवा कपड़ो को मिट्टी की खुशबु से रूबरू होने से पहले आगाह किया "बेटी संभल कर भागो, अरे कूदना मत, धत तेरे की, पंडिताइन बाल्टी भर दो, फिर से नहाना पड़ेगा"

अंततः प्रचंड पर-अहित के बिना नन्ही ने स्कूल से घर तक का सफ़र तय किया। 

"पापा आप आ गए!" बांहों से होती हुयी नन्ही पापा के कंधो पर जा बैठी, और पूरी दुनिया की सर्वेसर्वा हो गयी।

रात का खाना हो चुका था। नन्ही की दादी दिर्घाहार के कारण अभी भी जिव्हा सुख का रस्वादन में मगन थी। नन्ही, मम्मी और पापा सब दादी के साथ ही रहते है। पापा 'अर्जुन सिंह" फ़ौज में है, घर से दूर रहकर देश और परिवार दोनों का ही संरक्षण करते है। मम्मी, नन्ही का बचपन और घर संवारती है। नन्ही कुछ दिनों में 10 साल की हो जायेगी। 

"पापा ये आपके लिए"
"ये क्या है?"
"अरे ये तो रंग गोरा करने के क्रीम है, फेयर एंड फेयर! ये मेरे लिए है? क्यो?" 
"कुछ दिनों पहले इसने हमारी शादी वाली एल्बम देखी तो कहती है मम्मी, पापा शादी के समय इतने गौरे थे अब तो रंग थोडा डार्क हो गया है, पापा आयेंगे तो उनके लिए फेयर एंड फेयर लाऊंगी ताकि पापा और भी हेंडसम लगे पहले की तरह" मम्मी ने मीठा खुलासा किया।

"पापा मैंने टीवी पर देखा है की जो गौरे नहीं होते उन्हें जॉब नहीं मिलती, कोई उनकी सिंगिंग पसंद नहीं करता, उन्हें कामयाबी नहीं मिलती और जो फेयर एंड फेयर लगा कर गौरे हो जाते है उन्हें जॉब मिल जाती है, सिंगर बन जाते है, हीरो बन जाते है, हर जगह छा जाते है, दुनिया उनके पीछे पागल हो जाती है"

अर्जुन सिंह सोच मैं पड़ जाते है की हम फौजी बाड़मेर के तपते रेगिस्तान मैं 48 डिग्री पर भी डटे रहते है, ताकि घरो मैं ए.सी. के नीचे लोग बाहर झुलसती गर्मी को चिढ़ा सके, दिन-भर चलती रेत की पैनी आंधिया हर अंग को छलनी कर देती है, लेकिन जज्बे से भरी आत्मा को नहीं भेद पाती। अपनों के बिना रेगिस्तान की ठंडी राते भी तारो की अंतहीन गिनतियों की भेंट चढ़ जाती हैं। देश की रक्षा की कीमत में अनेको मूल्यहीन चीजों का न्योछावर करने में क्रम में उनका हुलिया तो फिर बहुत पीछे है। हुलिया तो ऐसा हो की दुश्मन हमारी परछाई से भी खौफ खाए, यही हमारी ख़ूबसूरती है, तब ही देश के असली गहने कहलायेंगे।

"बेटा यही तो ट्रेजड़ी है की ऐसी बाते जिम्मेदार मीडिया के जरिये भी फ़ैल रही है, ऐसी गुमराह बातों को तरजीह दी जाती है की देश के हीरो तो फेयर और हेंडसम लोग है। अगर ऐसा होता तो आज भी हमारा देश गोरो का गुलाम होता, हम काले लोग, गोरो से उनकी छाती पर चढ़ कर हलक से आज़ादी नहीं छीन पाते"

"पापा सही कहा आपने; आप को इसकी क्या जरूरत आप तो सबसे हेंडसम हो, 6 फीट लम्बे, हट्टे-कट्टे, अकेले ही 100 लोगो को धुल में मिला दो "

सात दिन, महीने भर बाद मिली पगार की तरह जल्द ही खर्च हो गए। नन्ही के पापा देश के दुश्मनों की आँखों की किरकरी बनने फिर से राजस्थान-पकिस्तान की सीमा पर चले गए। रात में एक बार फिर से पडोसी देश ने अकारण फायरिंग शुरू कर दी। दिन-भर के सफ़र की थकान जोश और फ़र्ज़ के आगे नत-मस्तक हो गयी। सुबह करीब 6 बजे दोनों तरफ से आग उगलते दानवो ने अवकाश लिया। घायल साथियो का इलाज शुरू हुआ। 

"आराम से राघव, ज़ख्म गहरा और ताज़ा है", अर्जुन ने टोका। 
"ये जख्म नहीं, तमगे है हमारे, इस दर्द से कैसा बैर"
"वो छावनी पर लहरा रहा तिरंगा देख रहा हैं, अर्जुन; भारत माँ का आँचल है वो, माँ की गोद और दर्द तो कभी ना मिलने वाले दो किनारे है, गोद में भला उसका बच्चा बिना मुस्कुराये रह सकता है?" राघव मुस्कुराया और भारत माता की गोद में अंतहीन मीठी नींद में खो गया। 



तेरी ही मिट्टी में जन्मा मैं माँ,
फिर तेरी ही मिट्टी का जर्रा बना।

तू ही है आसमां, साया मेरा,
तू ही बंदगी, तू मेरा खुदा।

तेरा ही लहू, नसों में बहा,
तुझ से मिला मैं, अब जुदा हु कहाँ।


एक और साथी की वियुक्ति की टीस, अर्जुन के सीने में धंस गयी। वो रात अर्जुन को अनुत्तरित सवालो से द्वंद करने के लिए छोटी लग रही थी।
"क्या गुज़र रही होगी राघव के परिवार पर, माँ-बाउजी, पत्नी और बच्चे कैसे ये संताप सहेंगे। कैसी त्रासदी है? जब बन्दूक से निकली गोली किसी को वापस जिंदा नहीं कर सकती, वो तो केवल बच्चो को अनाथ, मांग और गोद को सूनी ही करती है, तो फिर गोलिया बनती ही क्यों है? क्यों बनाते है हम लोग इसे? कहने को पूरा जहाँ भगवान ने हमारे लिए बनाया हैं और यहाँ जमीन-आसमान सब बंट गया, खून किसी का भी बहे, सरहद के इस पार या उस पार; खून तो इंसान का ही होगा, 

उधर नन्ही दुनियादारी से दूर माँ के हाथों का गरमा गरम खाना खा रही थी। 
"माँ पता है आज, बड़े वाले पार्क में, मैं और शैली खेल रही थी तब वहाँ कुछ लोगो ने पिकनिक मनाने के बाद बचा हुआ कचरा डस्टबिन की जगह वही किनारे पर फ़ेंक दिया, मैंने टोका की अंकल प्लीज डस्टबिन मैं कचरा डालिए नहीं तो पार्क गन्दा हो जायेंगा। अंकल ने कहा की डस्टबिन थोडा दूर था, लेकिन कोई बात नहीं मैं उसी में कचरा डाल देता हूँ, तभी दुसरे अंकल ने उन्हें रोका, 
"क्या सक्सेना साहब आप भी बच्चो की बातों पर गौर कर रहे हो। यहीं डाल दीजिये कचरा, दुसरे लोगो ने भी यंहा डाला हुआ है, सक्सेना साहब ये इंडिया है, अमेरिका नहीं "

"माँ अंकल ने जब कहा की ये इंडिया हैं, तो मुझे बहुत बुरा लगा, उनके बोलने के अंदाज़ में वो अभिमान और सम्मान नहीं था जो पापा के 'इंडिया' बोलने में होता है" 

माँ और दादी दोनों ही स्तब्ध रह गयी।

"बेटा, अगर तुम, अपनी क्लास मैं फेल हो जाओ तो क्या मैं और दादी, घर-घर जाकर लोगो से तुम्हारी बुराई करेंगे?

"नहीं माँ आप तो चाहोगे की मैं ज्यादा अच्छे से पढू, आप मुझ पर ज्यादा ध्यान दोगे, मुझे मोटीवेट भी करोगे"

"और जब तू अच्छे अंको से पास हो जायेगी तो मिठाई भी बाटेंगे", दादी ने चुटकी ली।

"पता है नन्ही, हम लोग ऐसा क्यों करेंगे? क्योंकि तू हमारी अपनी है, हमारा परिवार है, इसलिए हम निंदा करने के बजाय, तुम्हारी मदद करेंगे ताकि तुम बेहतर बनो और यहीं हमारी खुशियों का बहाना बनेगा। 

"बेटा ये बहुत बड़ी त्रासदी है की लोग अपने देश को अपना परिवार नहीं समझते, नहीं तो व्यंग कसने के बजाय उस चीज़ को सुधारते और गरूर करते। वो समझे ना समझे पर देश तो उन्हें अपना मानता हैं, माँ की तरह बिना शर्त अपनी गोद मैं खिलाता है, पिता की तरह जिंदगी भर अपने साए में महफूज़ रखता हैं, मिटटी से मिटटी तक का सफ़र साकार करता हैं। कभी कोई अपने माँ-बाप को किसी से कम्पेयर नहीं करता फिर ये लोग देश को और उसके विकास को किसी दुसरे देश से क्यों नापते है?" 

आर्डर आया है, सुबह 5 बजे उत्तराखंड के लिए कूच करना है, लाखों जाने फंसी है केदारनाथ में। अर्जुन सिंह 4 बजे ही मुस्तैद हो गए। भारी बारिश और भूस्खलन के बाद केदारनाथ में हजारो-लाखो लोग मलबो में फंसे, मदद का इंतजार कर रहे है। नेता अपनी-अपनी जीभ की नुमाइश कर रहे है। मीडिया अलग अलग मन बहलाऊ तरीके से खबरे दे रहा है। इन सबके बीच स्थानीय लोग और भारतीय सेना फरिश्तो का फ़र्ज़ निभा रही है। 

तीन-चार दिनों में विरोधी मौसम के बावजूद हजारो लोगो को सुरक्षित निकाल लिया गया फिर भी स्थिति बदत्तर होती जा रही है। वहां का वीभत्स दृश्य अकल्पनीय हैं हर तरफ लाशें ऐसे फैली है की खुद के जिन्दा होने पर भी संदेह हो जाए। अर्जुन एक मासूम चीत्कार की तरफ दौड़ा, उधर एक हाथ मलबे से बाहर आने को है, हाथ पकड़ कर खींचा, हाथ उखड कर हाथों में ही रह गया, कलेजा सन्न हो गया, लाशें क्षत-विक्षत होने के साथ-2 गंदे पानी में सड़ चुकी है। विदीर्ण हृदय के साथ उस हाथ को धीरे से भूमि पर रख दिया। वज्राघात तो अभी बाकि था, "ये क्या हाथ की एक अंगुली तो ताज़ा कटी हुयी है, हे इश्वर किसी राक्षस ने अंगूठी के लिए…" 

वापस वहीँ करुण 'चीख', उस पुकार की दिशा में झाडियों के पीछे गया वहां एक बेसुधसा बच्चा छटपटा रहा था, उसने ऊँगली से ईशारा किया, अर्जुन ने पलट कर देखा, "पूरी स्कूल बस ही उलटी पड़ी है", घर को अपनी रौनक से महका देने वाले बच्चो की लाशो से भंयकर दुर्गन्ध आ रही थी। "हे महादेव कैसी बेरुखी हैं और क्या-क्या देखना रह गया मुझे" बच्चे को गोद मैं ले कर राहत शिविर की तरफ दौड़ा।

उधर नन्ही के गाँव के बड़े मंदिर में धार्मिक कार्यकर्म उन्माद पर हैं, बाहर जुलुस की तैयारी हैं, हाथी, घोड़े, बाजे-गाजे, ढोल-मंजीरा, मिठाई-फूल, झंडे-झंडियां सभी बच्चो के लिए कौतुहल का सबब बनी हुयी हैं। भक्तजन का अलौकिक आन्नद चरम पर है। नृत्य, भजन-गान के इस माहौल मैं हर कोई यति - योगी जान पड़ता हैं। 

अनायास उत्सवी उल्लास के वातावरण में खलल हुआ, किसी अनैतिक तत्व ने जुलुस पर कचरा फ़ेंक दिया। निठ्ठले हुडदंगियो को मौका मिला। कभी शिव लिंग पर जल नहीं चढ़ाया; आज धर्म के नाम पर मासूमों पर चढ़ाई को तत्पर है। कभी कुरान को छुआ नहीं आज हाथ से तलवारे नहीं छूट रही। सोते गाँव में तांडव जाग उठा, दंगाइयों ने घर फूँक दिए, सपने जला दिए।

उधर केदारनाथ धाम में आधी रात को भी अर्जुन के अरमान नहीं बुझे। "अंकल!", मदद के लिए चीख-चीख कर थके हुए गले से आई इस थर्रायी हुयी आवाज़ ने अर्जुन को भी कंपा दिया। "मेरे बाबा उधर पत्थर के नीचे दबे है" पीछे खड़े लगभग 12 साल के लड़के ने एक तरफ इशारा करते हुए कहाँ। बूढा शरीर संवेंदना शुन्य आँखों से मौत की बाट जोह रहा था। 

"आप घबराइए नहीं मैं अभी आपको निकाल लूँगा।",बाबा के दोनों पैरो पर चट्टान आ गिरी है, सारा दर्द 3 दिन में बह कर जम गया। अर्जुन ने शरीर में बचे शक्ति के आखरी ज़र्रे का इस्तेमाल करते हुए चट्टान को एक तरफ धकेल दिया। बूढ़े बाबा को लगा 'वर्दी में भगवान' आए है। 

माँ ने नन्ही को गोद में लिया और जलते मकान से झुलसते हुए हुए जिंदगी की दिशा मैं भागी, नन्ही की दादी सुबह ही शहर अपने भाई के यहाँ चली गयी थी। "मम्मी अब हम कहाँ जायेंगे, वो लोग तो सामने वाले रास्ते में भी है", "बेटा तू इस बड़े पाइप में छुप जा, मैं उस पेड़ के पीछे चली जाती हूँ; घबराना मत मैं यही हूँ"। 
दंगाईयो की राह भटक गयी एक गोली, माँ के ममतामयी दिल से जा चिपकी, अंतिम बार नन्ही को देखने की हसरत दिल में समेटे, कटे वृक्ष की भांति निष्प्राण धरती पर आ गिरी। 

कैसी बिडम्बना है एक तरफ नन्ही के पापा रक्षक बन लोगो की दुआए लूट रहे हैं, दूसरी और किसी हैवान ने उसकी मम्मी को दुआ कबूल करने के वाले खुदा के पास भेज दिया। नन्ही की आँखे ऊपर चढ़ गयी, कलेजा फट जा रहा था, अँधेरी सिसकती रात में उसे माँ की लाश के पास बैठे देख, धर्म के मर्म से बेगाने पशुओ के दिल तो नहीं लेकिन आस-पास के पत्थर जरूर भी पिघल गए ह़ोंगे। 

अर्जुन सिंह गाँव पहुंचा, फ़र्ज़ के लिए पसीने की जगह खून बहाना उन्हें कभी नागवार ना हुआ लेकिन आज रक्त अश्रु की वेदना असह्य प्रतीत हो रही है। नन्ही दौड़ कर पापा से लिपट गई। आँखों में अथाह वेदना, निस्तेज चेहरा देख कर उस शूरवीर का शरीर भी जर्द हो गया। पापा के घर आने का उन्माद, दुःख के आवेश में विलीन हो गया। पापा ने नन्ही के सर पर हाथ फेरा, माँ की कमी को कैसे झुठलाऊ, आँखे फूल गयी है; लेश्मात्र भी आशंका नहीं थी की प्रियतम यूँ मझधार मैं छोड़ जायेगी। 

दो मोटी बूंदे, नन्ही के गालो से लुढ़कती हुयी, पापा के हाथों में समा गयी, अर्जुन के हृदय पर नश्तर चलने लगा। वो सोच मैं पड़ गया "बिना माँ के बच्चा ब्रह्माण्ड में अकेला होता हैं, माँ साथ हो तो पूरी दुनिया पास होती हैं। बच्चे की तोतली बोली जग के लिए भले ही हंसी का कारण हो लेकिन माँ के लिए मुस्कुराने का बहाना होती है। मनपसंद पकवान खा कर निंदिया मग्न बच्चे को कहाँ ध्यान की माँ ने ये रात भी फाको से गुजारी है। रेलगाड़ी के इंजन का तेज भोंपू भी दिन भर की भाग-दौड़ के बाद गहन निंद्रा से माँ को जगा पाने में विफल है वहीँ बच्चे का सूक्ष्म क्रंदन सौ कदम की दूरी से माँ को खीच लाता है, कैसे रहेगी नन्ही अब माँ के बगैर?"


तू माँ है मेरी, मैं हूँ तेरा गुरुर,
क्यों छोड़ा अकेला, मेरा क्या कसूर।

माँ कह देना, तू आएगी जरूर,
नादां हूँ मैं थोड़ी, ना रहना यूँ दूर।

तू कहती हैं ना, बेटा तू हैं मेरा नूर,
क्यों रूठी हैं माँ तू, क्या हो गयी भूल।


सात साल गुज़र गए।

"नन्ही, बेटा इतनी सुबह-सुबह कहा जा रही हो?, 15 दिनों के लिए ही आया हूँ, पापा के पास भी तो बैठो थोड़ी देर"
"पापा बस अभी दो घंटे मैं आई, फिर सारा दिन ढेर सारी बातें करेंगे "कहते-कहते नहीं ने स्कूटी स्टार्ट की।

"बेटा, मंदिर के पास वाले मैदान में तीन महीने पहले करीब 150 पोधे लगाए थे, रोज़ सुबह जा कर उन्ही को पानी देकर आती है; कहती है दादी, पूरे गाँव को फिर से हरा-भरा कर दूंगी" 

"माँ, कुए के पास जो कच्चा रास्ता था, वहां भी तो नन्ही ने सरकारी ऑफिस में चक्कर लगा-लगा कर पक्की सड़क बनवा दी, अब तो बिजली वाले भी डरते है बार-बार बिजली काटने से, कहीं नन्ही आ कर धरना ना दे दे"

"तूझे पता नहीं, शाम को सरपंच जी के आँगन में गाँव की बुजुर्ग औरतो और पुरुषो को पढ़ाती है, कभी-कभी तो मुझे भी खींच ले जाती है। 

"एक दिन कह रही थी, दादी, मेरी माँ नहीं रही तो क्या, मेरी भारतमाँ तो हमेशा मेरे साथ रहेगी, मैं अपने मातृभूमि को माँ की तरह प्यार करती रहूंगी। देश और देशवासी उन्नत रहे यही मेरा ध्येय है; और फिर मेरी भारतमाँ को कोई विकृत धर्म का ठेकेदार भी मुझसे छीन नहीं सकता क्योंकि इसका कोई एक 'धर्म' जो नहीं है, यह तो हिन्दू भी हैं और मुस्लिम भी"

"भारत माँ की इस बेटी को सलाम" अर्जुन ने सजल नेत्रों से कहा। 

रचियता: कपिल  चाण्डक 
Author: Kapil Chandak



Image Courtesy : Google  
THIS BLOG claims no credit for any images posted on this site unless otherwise noted. Images on this blog are copyright to its respectful owners. If there is an image appearing on this blog that belongs to you and do not wish for it appear on this site, please E-mail with a link to said image and it will be promptly removed.

Thursday, July 18, 2013

टिफ़िन चोर (कहानी)


रोहन, रोहन उठो, जल्दी करो स्कूल बस आने वाली है। रोहन ने मम्मी की आवाज सुन कर अपनी छोटी छोटी पलके खोली। खिड़की से बाहर देखा, "ये आसमां पर ढेरो रुई का ढेर कौन रख जाता है कभी लगता है जैसे बहुत सी भेड़े किसी ने मैदान पर खुली छोड़ दी हो, लगता आज बारिश होगी।"

सात साल का रोहन दूसरी कक्षा का छात्र है। आज बड़ा उत्साहित है अपने सहपाठी स्पर्श को अपने नये स्कूल बैग की नुमाइश जो करनी है। कुछ देर बाद बस रुकी, स्पर्श अपनी मम्मी को बाय करता हुआ बस पर चढ़ गया और उसकी नज़रे बस में बैठे सभी चेहरो की मुस्कान को रसीद देते हुए रोहन पर ठिठक गयी। भाग कर रोहन द्वारा रोकी हुयी सीट पर बैठते ही नए बैग का अभिमुल्यन करते हुए अपनी जेब से एक लिफाफा निकालता हैं। 

रोहन: "ये क्या है"? 
स्पर्श: "ये लैटर है पापा ने कहा था की स्कूल के बाहर जो रेड पोस्ट बॉक्स है उसमे डाल देना, दादाजी को लिखा है।"
रोहन: "स्पर्श ये लैटर कैसे सही पते पर पहुँच जाता है?"
स्पर्श: "हर पोस्ट बॉक्स के नीचे सुरंग होती है जहाँ से लैटर फिसलता हुआ आपके गाँव चला जाता है।"
रोहन: "लेकिन उसे पता कैसे चलता है की कहाँ जाना है, दादी के घर जाना है या नाना के गाँव?"
स्पर्श: "क्या यार ये भी नहीं पता! जब पेट में दर्द होता है तो दवाई लेने पर पेट दर्द ही ठीक होता है, वही दवाई दांत में दर्द होने पर दांत के दर्द को ठीक करती है, क्योंकि दवाई को पता होता है की पेट में जाना है या दांत में। ऐसे ही लैटर पर पता लिखा होता है इसलिए लैटर को पता होता है की कहा जाना है।" 

द्वितीय कालांश (पीरियड) में गणित के अध्यापक ने अपनी अकर्मण्यता पर लीपापोती करने के लिए उदघोष किया की आज सभी बच्चे होम वर्क क्लास में ही कर ले ताकि घर पर होने वाली ग़फ़लतो की समीक्षा यही हो सके (ताकि अध्यापक थोडा आराम कर सके)। बच्चो को और क्या चाहिए, 'अध्यापक और छात्र', दोनों ही पक्ष एक ही अनुयोजन से आनन्दित होते है की पढाई ना हो, तो फिर ऐसा प्रतिदिन क्यों नहीं होता? स्पर्श ने रोहन को अपन टिफिन खोल कर बताया की उसकी मम्मी ने आज उसके लिए उसके पसंदीदा कूकीज और चॉकलेट रोल्स रखे है। अब स्पर्श के साथ रोहन भी लंच ब्रेक का अधीरता से इंतज़ार करने लगा।सभी बच्चो के कानो मैं सुरीली मध्यांतर की घंटी गूंजी, एक साथ सधे कदम कक्षा के दरवाजे की तरफ तीव्रता से बढे मानो कोई अदृशय शक्ति उनका संचालन कर रही हो, सारे आपसी मन-मुटाव जो पिछले चार कालांशो से फल फूल रहे थे, पानी के बुलबुलों की तरह बिखर गए। रोहन और स्पर्श भी हाथ-मुहँ धो कर कक्षा में आये ताकि उनके आज के ध्येय की पूर्ति कूकीज और चॉकलेट रोल्स खा कर पूरी हो सके।

"ये क्या मेरा लंच कहाँ है, अभी तो टिफिन मैं था अब कहाँ गया?" स्पर्श बोखलाया। उसके टिफिन से खाना अलोप हो चूका था। सरगर्मी बढ़ गयी हुजूम इकठ्ठा हो गया दूर-दूर की कक्षाओ और अनुभागो (सेक्सन) से बच्चे आने लगे, कोई सहानुभूति देता, कोई कौतुहल व्यक्त करता तो कोई ठिठोली करता और कोई-कोई तो नेतागिरी से भी बाज नहीं आया। क्लास टीचर के दखल के बाद बच्चो के मनोरंजन के इस कारण पर रोक लगी, आगे से एहतियात रखने के हिदायत के साथ स्पर्श को, रोहन और बाकी बच्चो के खाने को साँझा करने के लिए कहा गया। 

अगले दिन मध्यांतर में टिफिन खोला गया, खाना फिर से नदारद! अब ये कोई संयोग नहीं हो सकता, पूरी कक्षा सकते में आ गयी, अचरज ये था की दुसरे दिन भी स्पर्श का ही खाना गायब क्यों हुआ जबकि और भी तो टिफिन थे वहां। स्पर्श को रोना आ गया, रोहन और बाकि बच्चो ने दिलासा दी। स्कूल प्रशासन ने इसे गंभीरता से लिया। चाक-चोबंदी बढ़ गयी। कुछ बच्चे जो टीवी पर प्रसारित होने वाले डिटेक्टिव सीरियल 'सुपर सिक्स' से प्रभावित थे ने आपस में गोपनीय जत्था तैयार किया गया जो लंच-ब्रेक में छुप कर निगरानी करेगा की इस कौतुक का स्वामी कौन है। जत्थे के छात्र लंच-ब्रेक में खेल-कूद के साथ-साथ कुछ समय के अंतर से कमरे के बाहर मंडराने लगे। 

स्कूल का चपरासी इधर-उधर तांक-झाँक करने के बाद सीधे कमरे में चला गया और वहां रखें स्पर्श के टिफिन को हाथ में उठा लिया। 
"चोर चोर चोर", गोपनीय जत्थे के बच्चे एक साथ चिल्लाते हुए कमरे में आ धमके, चपरासी का चेहरा रंगहीन हो गया, लडखडाई जुबां को सँभालते हुए बोला, क्या हुआ? मैंने क्या किया?
"आपने स्पर्श का खाना चुराया है" 
"नहीं, मैं नहीं हूँ खाना चोर, मैं तो केवल ये देखने आया था की खाना आज भी चोरी हुआ या नहीं"
" नहीं आप झूठ बोल रहे हो देखो आपके मुह पर अभी भी खाना लगा है और टिफिन में भी खाना नहीं है"
"मैं अपना लंच लेने के बाद ही यहाँ आया था, जल्दबाजी मैं मुह साफ़ नहीं किया और खाना तो पहले से गायब था, मुझे भी टिफिन खोलने पर मालूम चला" 

बात प्रधानाचार्य तक पहुंची, चपरासी को आड़े हाथो लिया गया। बच्चो को कुछ दिनों के लिए कयास लगाने और मस्तीखोरी करते हुए ढींगबाज़ी का बहाना मिल गया था। स्कूल के बाहर पहाड़ भी टूट जाए तो बच्चे इस घटना को उपेक्षित कर देते है लेकिन स्कूल के अन्दर सुई भी गिर जाए तो अंतहीन ठहाके लगने लगते है। जांच पड़ताल करने पर चपरासी को इस आधार पर छोड़ दिया गया की जब कल वो अवकाश पर था तब भी लंच ब्रेक में खाना गायब हुआ था। और अगले दिन भी (चपरासी के पकडे जाने के बाद का दिन) स्पर्श का लंच गायब हैं! यानी गुनहगार कोई और ही है।

रोहन ने घर पर अपने 11 वर्षीया भाई को इस विषय में बताया। उसका बड़ा भाई कपिल जिसे खुफियागिरी और अटपटी बातों में कुछ ज्यादा दिलचस्मी थी, उसने सम्भावना व्यक्त की हो सकता है मंगल गृह से एलियंस धरती पर कब्ज़ा करने के इरादे से आ पहुंचे हो और उनका पहला निशाना तुम्हरा स्कूल हो, उसके बाद धीरे-धीरे उनका आतंक पूरी दुनिया पर फ़ैल जाएगा और किसी का भी खाना कभी भी गायब हो जाएगा।
"भैया अब हम क्या करे" 
"तू घबरा मत, मैंने एक मूवी में देखा था की एलियंस से कैसे निपटा जाता है, लेकिन तुझे अब चौकन्ना रहना होगा क्योंकि हम चारो ओर से घिर चुके है, कभी भी मारे जा सकते है।"
"भैया मुझे डर लग रहा है"
"अब बात बहुत आगे निकल चुकी है, डरने का वक़्त अब ख़त्म हुआ, अब हम दोनों के कंधो पर पूरी दुनिया की जिम्मेदारी है, दुनिया को बचाना है"

रोहन समझ नहीं पा रहा था की दुनिया बचाए या स्पर्श का खाना। अभी होमवर्क भी तो करना है, होमवर्क करने के बाद दुनिया की चिंता करना ठीक रहेगा। एलियंस धरती पर कब्ज़ा कर ले तो अच्छा ही रहेगा, कम से कम ये होमेवर्क से तो पीछा छुटेगा, कोई इतना होमवर्क भी देता है क्या? घर के सामने चाय वाला कितना 'लकी' है, बरगद के पेड़ के नीचे चाय की स्टाल हैं दिन भर मजे से बैठता है ना स्कूल जाने का प्रेशर ना होमवर्क का हौव्वा। आने जाने वालो को चाय पिलाता है, चुस्कीयो के साथ देश-विदेश के किस्से चलते रहते है, कभी भूत-प्रेत की बाते कभी गाँव के मेले या किसी ज़माने के राजा की शादी के भव्यता की चर्चा, कितना मज़ा आता है, पैसे कमाता है वो अलग। यहाँ दिन रात आँखे फोड़ते रहो, आने जाने वाले भी सलाह देते रहते है बेटा खूब पढ़ा करो, पढने की उम्र है। बर्फ से ठंडी रातों में (सुबह जल्दी) उठना पड़ता हैं पहले पीरियड से ही लंच-ब्रेक और लंच-ब्रेक के बाद छूट्टी का इंतज़ार रहता है। अभी एक एग्जाम कम्पलीट भी नहीं होता की दुसरे का टाइम टेबल मिल जाता गर्मियों की छुट्टियों में भी होमवर्क का भूत पीछे लगा देते हैं।

अगले दिन बस में रोहन, स्पर्श से मिला, विचारशील बातें हुयी।
स्पर्श: "क्या आज भी मेरा लंच चोरी हो जाएगा या चोर का पता चलेगा?, मैंने तो अभी तक डर के कारण मम्मी को नहीं बताया, हा मेरी दीदी (जो 12 साल की है) को बताया तो उसने कहा की खाने में नींद की दवाई मिला दो, जो खायेगा उसे नींद आ जायेगी और पकड़ा जाएगा, ये आईडिया उन्हें एक टीवी सीरियल से आया था, लेकिन नींद की दवाई कहाँ से आये?" 

रोहन: "मेरे भैया बता रहे थे की ये सब एलियंस कर रहे है, एलियंस के बारे में उन्होंने टीवी पर देखा था, मुझे समझ नहीं आता की लोग इतनी छोटी टीवी के अन्दर कैसे घुस जाते है, एक बार मम्मी-पापा बाहर गए थे तो मेरे भैया ने ये देखने के लिए पीछे से टीवी खोल दिया था, पर वहां कोई नहीं दिखा, मम्मी पापा की डांट के बाद भैया भी कई दिनों तक टीवी के पास नहीं दिखे हा हा हा।"

आज गोपनीय जत्थे का नामकरण दिवस है। गुपचुप तरीके से सुझाव लिए जा रहे है। हर तरफ गहमा-गहमी है की खाना चोर कौन है? कब पकड़ा जाएगा? स्पर्श के लंच के पीछे ही क्यों पड़ा है? 'खाना चोर' परम मसालेदार विषयो के श्रेणी मैं आ चुका था। 

गोपनीय जत्थे ने आज बिसात बिछा दी, पीछे वाली बेंच के नीचे एक बच्चा छुप कर बैठ गया, एक दरवाजे के पीछे खड़ा है, कक्षा के सभी बच्चो के लंच बॉक्स बेग से निकाल कर सजा कर रख दिए, कुछ एक के तो टिफिन के ढ़क्कन भी हटा दिए, कक्षा के बाहर से भी निगरानी के पूरे इंतजामात कर दिए गए। आज तो शिकार फंसेगा। हाथी की मदमस्ती में विशाल कमरे में आया और पहले से ढक्कन हटे हुए बॉक्स में से एक चम्मच पुलाव मुहँ के हवाले करने ही वाला था की अप्रत्याशित जन्मदिवस समारोह की तरह पूरा कमरा रौशनी के झमाके के साथ गूँज उठा। विशाल पकड़ा गया!

"मुझे क्यों पकड़ा है मैंने क्या किया"
"हम सब ने तुम्हे रंगे हाथों पकड़ा हैं, तुम ने जिस टिफ़िन से पुलाव लिए थे वो तुम्हारा नहीं था, फिर तुमने क्यों लिए?"
"माना ये मेरा टिफ़िन नहीं है पर अब जब कोई ढक्कन हटा कर इतने स्वादिष्ट खाना सजा कर रखेगा तो किसका मन नहीं ललचाएगा की एक चम्मच टेस्ट तो करे, खाना सिर्फ स्पर्श का चोरी होता है और फिर ये स्पर्श का टिफ़िन भी तो नहीं है।" 

लगा जाल मैं फंसी मछली हाथ से फिसल कर फिर से पानी में कूद गयी, गोपनीय जत्थे का नाम 'फ्लाइंग आईज' फाइनल हुआ। छुट्टी के बाद रोहन रेडियो पर बज रहा गीत गुनगुनाता है " चौधरी का चाँद है या किताब हो" स्पर्श को हंसी आ गयी। "ये क्या गा रहा है, पहले मैं भी चौधरी का चाँद ही समझता था एक दिन पापा ने बताया की 'चौहदवी का चाँद है या आफ़ताब हो' होता है। माहौल में हल्कापन आ गया। 

रोहन: "तू अपने पापा से बहुत क्लोज है" 
स्पर्श: "हां कई बार जब मैं पढाई करता हूँ तो पापा भी मेरे साथ पढने लग जाते है, पापा भी तो कोई एग्जाम की तैयारी कर रहे है, कहते है की एग्जाम क्लियर करने पर प्रमोशन हो जाएगा।" 
रोहन: "क्या अंकल अभी तक पढाई करते है, हे भगवान क्या मैं 30-35 साल तक पढता रहूँगा क्या? कितनी अजीब बात है की हम अपनी आधी जिंदगी स्कूल, कॉलेज के अन्दर ये सीखने में बिता देते है की हमें बाकि बची आधी जिंदगी को बाहर कैसे जीना है हा हा हा।"

अगले दिन दोनों बस से स्कूल आ रहे थे, रोहन ने गौर किया की स्पर्श अपना खाना रहस्यमयी रूप से बस की खिड़की के बाहर फैंक रहा है।
"ये क्या कर रहे हो स्पर्श, इसका मतलब तू रोज़ अपना खाना बस के बाहर फैंक देता है, और कलंक किसी काल्पनिक खाना चोर पर लगा देते है"

"सॉरी रोहन, प्लीज किसी को मत बताना"
"लेकिन तू ऐसा क्यों करता है"

"मेरी मम्मी मुझे पोषक खाने का हवाला देते हुए,कद्दू, पालक, घीये आदि की सब्जी देती है, जो मुझे पसंद नहीं, बचा हुआ खाना घर ले जाता हु तो डांट पड़ती है, एक दिन जब खाना वाकई मैं चोरी हो गया था और टीचर ने कहा की रोहन और बाकी लोगो का खाना शेयर कर लो, तब मुझे लगा की मेरे अलावा बाकी बच्चे कितना यम्मी खाना लाते है, साथ ही इतनी वैरायटी भी मिल गयी, इसलिए मैंने ये सब शुरू किया ताकि मुझे घर से लाया खाना खाने की बजाय रोज़ ये सब खाने को मिले। लेकिन मुझे आज तक ये समझ में नहीं आया की उस दिन तो मेरा फ़ेवरेट चॉकलेट रोल्स और कूकीज थे वो किसने चोरी किये थे।"

"वो मेने चोरी किये थे" रोहन मुस्कुराया। 


रचियता: कपिल  चाण्डक 
Author: Kapil Chandak



Image Courtesy : Google  
THIS BLOG claims no credit for any images posted on this site unless otherwise noted. Images on this blog are copyright to its respectful owners. If there is an image appearing on this blog that belongs to you and do not wish for it appear on this site, please E-mail with a link to said image and it will be promptly removed.

Saturday, July 6, 2013

पापा मेरे (कहानी)

'पापा मेरे' टिफिन पैक कर रहे थे छोटे भाई के लिए। साल 2001 के मई महीने का एक और गर्म दिन था। पापा अभी आये ही थे कड़ी धुप से जंग का निशान अभी भी चेहरे पर था। मम्मी ने मध्याहन भोजन के लिए पुछा, पापा ने कहा पहले मोनू (मेरा छोटा भाई) को खाना दे आऊ दुकान पर, उसे भूख लग रही होगी।

साल 2013 का मई का महिना, मंथ एंड क्लोजिंग के कारण देर रात को घर पहुंचा। राधिका (मेरी पत्नी और सबसे अच्छी दोस्त ) रात 3 बजे भी मेरे इंतज़ार में जग रही थी अपनी मुस्कराहट से मेरा स्वागत करने के लिए। तय हुआ की मैं थोडा देर से उठूँगा ताकि नींद अच्छे से पूरी हो सके। सुबह 6 :30 बजे मेरी करीब दो साल की बेटी ने कानो में मिश्री घोली, "उत जाओ पापा उत जाओ ना" लगा शायद किसी ने स्वर्ग का दरवाजा खुला छोड़ दिया, उसके छोटे छोटे हाथ मेरे चेहरे को सहला रहे थे जो हर बार चेहरे पर एक नयी चमक और सुकून छोड़ रहे थे। उसकी मम्मी ने कहा बेटा पापा को सोने दो पापा को निन्नी आ रही है। लेकिन उसकी मीठी मुस्कान देखने का लोभ मैं नहीं छोड़ सकता था जो पूरे दिन की थकान को ठेंगा दिखा देती है। 

मैं चौराहे पर देर तक खड़ा रहता था की पापा आने वाले है और फिर वो मुझे गोदी मैं उठा कर घर तक लायेंगे। पापा ने बहुत बार समझाया की इस तरह बाहर इंतज़ार मत किया करो मुझे कभी-कभी देरी हो जाती है और फिर मैं घर के अन्दर ही तो आऊंगा लेकिन वो उमड़ता हुआ प्यार पाना और साथ मैं लायी हुयी चीज का रहस्य सबसे पहले जान कर ज्यादा बड़े हिस्से का दावेदार बनने का अवसर मैं क्यों छोड़ता भला। पापा की थाली में पापा के साथ खाना लेना, इससे स्वादिष्ट और क्या होगा। पापा दही में मीठा लेते थे, मुझे भी मीठा दही पसंद था। मम्मी पापा की रोटी को दो बार तह करती थी जिसका उसका आकर त्रिभुज जैसा हो जाता था, मैं इस तरह के आकर वाली रोटी को पापा की रोटी कहता था और अक्सर जिद करता था की मुझे 'पापा की रोटी' बना कर दो। 

मेरी बिटिया (2013) 
अब सुबह जल्दी उठ कर तैयार हो जाता हूँ इसलिए नहीं की ऑफिस समय पर पहुंचू , बल्कि नास्ता जल्दी मिल सके (मैं ज्यादा देर भूखा नहीं रह सकता) और मेरी छोटी गुडिया के साथ इसे साँझा कर सकू। ट्वीटी (मेरी प्यारी बिटिया) को खाना उसकी मम्मी ही खिलाती है लेकिन उसे अपने पापा के साथ खाना पसंद है। हर वो चीज़ जो मुझे पसंद है वही उसको भी पसंद है भले ही वो निस्वाद ही क्यों न हो। छोटे छोटे टुकड़े करके उसे खिलाते समय आनंद और गर्व की ऐसी अनुभूति होती हैं जो किसी राजा को आस-पास के सभी राज्य जितने पर होती होगी। इस बीच कभी कभी वो अपने छोटे छोटे हाथो से रोटी का एक टुकड़ा ले कर जिस पर कभी भी सब्जी लगाना नहीं भूलती मेरे मुह मैं रखते हुए कहती है "पापा आप खाओ" मानो भगवान बाल रूप में स्वयं अपना प्यार खाने में परोस रहे हैं।

पापा हमेशा से ही अपने दोस्तों के मध्य सर्वप्रिय रहे है। दोस्तों का आना जाना लगा रहता था। अपने दोस्तों से घिरे हुए, पीठ थपथपाते हुए मेरी उपलब्धिया, (उनकी नजरो मैं) स्वभाव, समझदारी, ज्ञान का सविस्तार वर्णन करते हुए थकते नहीं थे। उन पलो मैं अहसास होता था की मैं ब्रह्माण्ड का सबसे अच्छा बच्चा हूँ। उनकी इसी धारणा ने मेरे अबोध मन मैं इस विश्वास को साकार करने के बीज बो दिए थे। उत्साहित रहता था इसी कल्पना मैं की मुझे सबसे अच्छा पुत्र, भाई, मित्र, विद्यार्थी और इंसान बनना हैं और यही मेरा परम ध्येय था। मुझे ले कर जो मान्यता पापा ने बनायीं और जो प्यार बरसाया उसने एक ढाल की तरह मुझे हर विसंगतियों, और गुणहीन वस्तुओ से बचाए रखा। उनकी गर्वित आखों की प्रसन्नता को मुझे और भी महाकाय करना था सम्पूर्ण जीवनकाल के लिए। शायद यही एक तरीका था की मुझे मिली मीठी जीवनदायनी नदी जैसे स्नेह मैं से एक लोटा मीठा कृतज्ञ जल वापस कर पाँउ।

बेटी मेरी बहुत शरारती है दिन भर मस्ती और धूम धडाका करती रहती है साथ ही चतुर और बुद्धिमान तो है ही। अपनी उम्र के मुकाबले बहुत आगे है कुछ हरकतें तो उसकी हैरान कर देने वाली है अभी दो साल की भी नहीं है और मेरे ऑफिस जाते समय कहती है "पापा ध्यान से जाना, जल्दी आना" और फिर हाथ पकड़ कर दरवाजे तक लाती है, "पापा शूज पहनो" "पापा अब जाओ" "बाय". उसे पता है की जब पापा ऑफिस जाते है तो जिद नहीं करते और साथ में जाने के लिए रोते भी नहीं है लेकिन ऑफिस के अलावा पापा कही और जाते है तो फिर ट्वीटी को घर पर रोक पाना 11 मुल्को की पुलिस के लिए भी मुमकिन नहीं है। उसे पता है की जब ब्लैक ड्रेस पहनते है तो ब्लैक सेंडिल पहननी चाहिए। उसे पता है की जब मम्मी के फ़ोन पर ये वाली रिंगटोन बजती है तो पापा ने ही कॉल किया है। वो नहीं भूलती दोपहर में मम्मी से जिद करके पापा को कॉल करवाना है और खूब सारी बात बताना है "पापा नहाई नहाई कर ली में" "पापा काऊ मम खा गयी" "पापा बलून लाना"।

मेरा एक छोटा भाई और बड़ी बहन है हम तीनो ही मम्मी से ज्यादा पापा के लाडले थे।चुस्की के लिए पैसा मांगना हो या मेले में तमाशा देखना हो, सारे दावे पापा से ही करते थे। हम तीनो को पापा के बहुत ज्यादा प्यार और ख्याल की लत पड़ गयी थी। बड़े हो जाने पर भी हमारे सारे काम जो हमसे अपेक्षित थे पापा कर देते थे। हम असावधान और बेफ़िक्र रहते थे। छुटपन में कभी कभी बिना खाना खाए नींद आ जाती थी तो पापा जगा कर खाना खिला कर ही सुलाते थे। शाम को मम्मी की शिकायतों की लम्बी फेहरिश्त तैयार रखते थे। घर में कुछ आता था तो सबसे पहले बच्चो में बंटता था। हम लोग एक मिठाई जिस के हम उम्मीदवार थे सबसे पहले खा लेते थे, एक चुरा लेते थे और एक पापा की दरियादिली का फायदा उठा कर हड़प लेते थे। इस तरह "एक का तीन" में हमारी गहन श्रद्धा थी। पापा से पड़ोस और रिश्तेदारों के बच्चे, सभी घुलेमिले थे।

जब ट्वीटी ने नया-नया बैठना सीखा तो मैं उसके चारो और रुई के तकियों का किला खड़ा कर देता था ताकि वो उसे भेद कर चोट न लगा ले, सोते समय बेड पर तकियों का अटूट तिलिस्म बना देता था जिसे तोड़ कर वो नीचे ना गिर आये। चलने लगी तो घर का डेकोरम बदल दिया ताकि करंट, नुकीली चीजो आदि से बचाव होता रहे। हालाँकि ये सब सामान्य लेकिन मैं इतना ज्यादा इन्वोल्व हो जाता था की लोग मुझे छेड़ते भी थे, की बच्चे तो हमने भी पाले है, गिरते पड़ते ही सब बड़े होते है, बच्चो में डर होना चाहिए, रोज़ घुमा कर लाओगे तो इसे घूमने की आदत पद जायेगी। अब आदत पड़ जायेगी तो उसके पापा है न घुमाने के लिए रोज़, उसके पापा को भी तो आदत पड़ गयी अपनी नन्ही पारी को घुमी-घुमी कराने की। मैं ऐसा पिता नहीं हु जो बच्चो को लाड प्यार में बिगाड़ दे। मैं तो वो पिता जो अपने बच्चो को पलकों पर रखता है और दिल में उमड़ रहे प्यार को पूरा उड़ेल देता है साथ ही जो सुनिश्चित करता है की बच्चा संस्कारी, समझदार, स्वाभिमानी होने के साथ मासूमियत भरी शरारते, मस्ती और बचपना कभी ना भूले जो उसकी खुशियों का स्रोत है।
पापा मेरे, मैं और मेरी बहन (1984)

साल 2007 में मम्मी पापा को किसी काम से हमारे पैतृक गाँव सांभर जाना पड़ा। देर रात को मेरे ताउजी के बड़े पुत्र का कॉल आया की पापा की तबियत बहुत ख़राब है। मेरा दिल सन्न हो गया, मैंने कहा आप उन्हें सबसे अच्छे डॉक्टर के लेकर जाओ, जल्दी करो, मुझे बताओ। कई बार बात हुयी। उस रात बरसात बहुत तेज थी सांभर में, कोई भी डॉक्टर आने को तैयार नहीं था। मैं फ़ोन पर मरता रहा, हाथ फैलाता रहा। करीब 3 घंटे बाद भैया ने कहा तुम सब लोग आ जाओ जल्दी, मैंने पूछा अब तबियत कैसी है, जयपुर से तो जाते समय बिलकुल ठीक थे, कोई बीमारी भी नहीं है, अच्छे भले गए थे, भैया ने कहा की बस आ जाओ, तुम समझदार हो समझ जाओ। मैं समझ गया की पूरी दुनिया अब ख़त्म हो गयी। लगा किसी ने अँधेरी खाई मैं धक्का मार दिया। मैं छोटा भाई, दीदी, जीजाजी हम सब सांभर भागे। हम तीनो बच्चे पापा के पास उनके अंतिम समय में नहीं थे, मम्मी ने बताया पापा बार-बार तुम लोगो के लिए पूछते रहे लेकिन कोई नहीं था। ये बात जिंदगी भर कचोटती रहेगी। वहा की हर चीज से नफरत हो गयी, 12 दिन बाद वहा से लोटा तो दिल पर पत्थर था आज भी है। कुछ सबसे ज्यादा अनमोल वही रह गया था, छीन लिया था उस जगह ने मुझसे। महीनो तक यकीं नहीं हुआ। रोज़ लगता था की बहुत बुरा सपना है अभी टूटने वाला है। आखों के आंसू घर पहुँचने से पहले सूख जाए इसके लिए ऑफिस से आते समय पंद्रह मिनट का रास्ता डेढ़ घंटे का होने लगा। पहले स्वाभाव में स्वछंदता और चंचलता थी, क्योंकि हर बात को सँभालने के लिए पापा थे। अब सब जिम्मेदारी मेरे ऊपर है मैं किससे कहूँ। जो प्यार मिला था उसे लौटाने का समय आ ही नहीं पाया। इस बात का अफ़सोस दुनिया के अंतिम दिन तक रहेगा। आज भी सपने में पापा आते है तो नींद से जाग जाने का अफ़सोस होता है। 

समय थोडा आगे बढ़ा ऐसा लगता था की आसमान का रंग ही काला हो गया है, अब नौकरी मैं अच्छा इन्क्रीमेंट या प्रमोशन हो जाए तो भी क्या? एग्जाम मैं अच्छे मार्क्स आ जायेंगे तो भी कौन पीठ थपथपाएगा? कोई भी उपलब्धि अब किसके लिए? लगा बड़ा हो गया। फिर निश्चय किया की पापा का बेटा हूँ मैं फिर ऐसा क्यों सोच रहा हु, अब मुझे ही पापा के सारे काम करने है। पापा का प्यार आसमान से बहता हुआ मेरे दिल में संचित हो रहा है उसे लुटाना है अपनों पर, परिवार को संवारना है, सब के लिए सब कुछ बनना है। 

आज हर दिन यही कोशिश है की सबसे अच्छा बेटा, भाई, पति और इंसान बनू और दूसरा सबसे अच्छा पिता क्योंकि पहले तो मेरे पापा ही रहेंगे। भगवान ने इस सजा को कम करने के लिए जो बेटी उपहार में दी है चाहूँगा की जब उससे पुछा जाए की बेटा कौन है आपका सबसे अच्छा दोस्त तो उसके दिल से यही निकले 'पापा मेरे'


"नन्ही-नन्ही पलकों में जो डिबिया बंद है, मानो सपनो की घडिया चंद है, 
तारो की चमक कहकशा से कुछ मंद है, हंसती सेहर का है अब इंतज़ार,
सच्ची-झूठी दुनिया का जो रंग है, नन्हे कदमो के बड़ा होने की जंग है,
बचपन की ख़ुशी-रौनक संग है, बुजुर्गो की दुआओ को है बेक़रार।

मीठी-मीठी थपकी जो मिल जाए, पूरा बचपन ही संवर जाए,
नए-नए खिलोने भी कम भाये, गर सुरीली लोरियों मैं मिले प्यार,
छोटी-छोटी ऊँगली जो थाम ले, पुकारे तो प्यार से अनेको नाम ले,
सुनहरा बचपन है सामने जो गोदी और कंधो पर मिले दुलार।" 


में और मेरी बेटी (2013) 


रचियता: कपिल  चाण्डक 
Author: Kapil Chandak
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...