Wednesday, July 31, 2013

नन्ही का देश (कहानी)



"शैली, पता है आज मेरे पापा आ रहे है सात दिन यही रहेंगे मेरे जन्मदिन तक" 

विद्यालय में छुट्टी की घंटी की सुहानी गुंजन के साथ 'नन्ही' के पैरो में मानो पंख लग गए। 
यो ओ"… वन में दौड़ते हिरनों की भांति कुलांचे भरती हुयी नन्ही बाहर की और भागी।

इस उपक्रम में साइकिल सवार ग्वाले ने अपना संतुलन खोया, पडौसी चाची की महत्वाकांशी रंगोली की शिनाख्त मुश्किल हुयी, आठ साल के बबलू की पतंग ने आसमान की जगह सड़क पर बह रहे पानी में अपनी नियति ढूंढी, बछड़े ने मासूम गोदी में प्यार पाया, दामोदर काका के खेतो ने कुछ गन्ने और गंवाए, लाला ने जुबानी खर्चे की कीमत पर मिठाई का त्याग नहीं करने की हिमाकत पर ठेंगा और कंजूस का तमगा पाया, पंडित जी ने भगवा कपड़ो को मिट्टी की खुशबु से रूबरू होने से पहले आगाह किया "बेटी संभल कर भागो, अरे कूदना मत, धत तेरे की, पंडिताइन बाल्टी भर दो, फिर से नहाना पड़ेगा"

अंततः प्रचंड पर-अहित के बिना नन्ही ने स्कूल से घर तक का सफ़र तय किया। 

"पापा आप आ गए!" बांहों से होती हुयी नन्ही पापा के कंधो पर जा बैठी, और पूरी दुनिया की सर्वेसर्वा हो गयी।

रात का खाना हो चुका था। नन्ही की दादी दिर्घाहार के कारण अभी भी जिव्हा सुख का रस्वादन में मगन थी। नन्ही, मम्मी और पापा सब दादी के साथ ही रहते है। पापा 'अर्जुन सिंह" फ़ौज में है, घर से दूर रहकर देश और परिवार दोनों का ही संरक्षण करते है। मम्मी, नन्ही का बचपन और घर संवारती है। नन्ही कुछ दिनों में 10 साल की हो जायेगी। 

"पापा ये आपके लिए"
"ये क्या है?"
"अरे ये तो रंग गोरा करने के क्रीम है, फेयर एंड फेयर! ये मेरे लिए है? क्यो?" 
"कुछ दिनों पहले इसने हमारी शादी वाली एल्बम देखी तो कहती है मम्मी, पापा शादी के समय इतने गौरे थे अब तो रंग थोडा डार्क हो गया है, पापा आयेंगे तो उनके लिए फेयर एंड फेयर लाऊंगी ताकि पापा और भी हेंडसम लगे पहले की तरह" मम्मी ने मीठा खुलासा किया।

"पापा मैंने टीवी पर देखा है की जो गौरे नहीं होते उन्हें जॉब नहीं मिलती, कोई उनकी सिंगिंग पसंद नहीं करता, उन्हें कामयाबी नहीं मिलती और जो फेयर एंड फेयर लगा कर गौरे हो जाते है उन्हें जॉब मिल जाती है, सिंगर बन जाते है, हीरो बन जाते है, हर जगह छा जाते है, दुनिया उनके पीछे पागल हो जाती है"

अर्जुन सिंह सोच मैं पड़ जाते है की हम फौजी बाड़मेर के तपते रेगिस्तान मैं 48 डिग्री पर भी डटे रहते है, ताकि घरो मैं ए.सी. के नीचे लोग बाहर झुलसती गर्मी को चिढ़ा सके, दिन-भर चलती रेत की पैनी आंधिया हर अंग को छलनी कर देती है, लेकिन जज्बे से भरी आत्मा को नहीं भेद पाती। अपनों के बिना रेगिस्तान की ठंडी राते भी तारो की अंतहीन गिनतियों की भेंट चढ़ जाती हैं। देश की रक्षा की कीमत में अनेको मूल्यहीन चीजों का न्योछावर करने में क्रम में उनका हुलिया तो फिर बहुत पीछे है। हुलिया तो ऐसा हो की दुश्मन हमारी परछाई से भी खौफ खाए, यही हमारी ख़ूबसूरती है, तब ही देश के असली गहने कहलायेंगे।

"बेटा यही तो ट्रेजड़ी है की ऐसी बाते जिम्मेदार मीडिया के जरिये भी फ़ैल रही है, ऐसी गुमराह बातों को तरजीह दी जाती है की देश के हीरो तो फेयर और हेंडसम लोग है। अगर ऐसा होता तो आज भी हमारा देश गोरो का गुलाम होता, हम काले लोग, गोरो से उनकी छाती पर चढ़ कर हलक से आज़ादी नहीं छीन पाते"

"पापा सही कहा आपने; आप को इसकी क्या जरूरत आप तो सबसे हेंडसम हो, 6 फीट लम्बे, हट्टे-कट्टे, अकेले ही 100 लोगो को धुल में मिला दो "

सात दिन, महीने भर बाद मिली पगार की तरह जल्द ही खर्च हो गए। नन्ही के पापा देश के दुश्मनों की आँखों की किरकरी बनने फिर से राजस्थान-पकिस्तान की सीमा पर चले गए। रात में एक बार फिर से पडोसी देश ने अकारण फायरिंग शुरू कर दी। दिन-भर के सफ़र की थकान जोश और फ़र्ज़ के आगे नत-मस्तक हो गयी। सुबह करीब 6 बजे दोनों तरफ से आग उगलते दानवो ने अवकाश लिया। घायल साथियो का इलाज शुरू हुआ। 

"आराम से राघव, ज़ख्म गहरा और ताज़ा है", अर्जुन ने टोका। 
"ये जख्म नहीं, तमगे है हमारे, इस दर्द से कैसा बैर"
"वो छावनी पर लहरा रहा तिरंगा देख रहा हैं, अर्जुन; भारत माँ का आँचल है वो, माँ की गोद और दर्द तो कभी ना मिलने वाले दो किनारे है, गोद में भला उसका बच्चा बिना मुस्कुराये रह सकता है?" राघव मुस्कुराया और भारत माता की गोद में अंतहीन मीठी नींद में खो गया। 



तेरी ही मिट्टी में जन्मा मैं माँ,
फिर तेरी ही मिट्टी का जर्रा बना।

तू ही है आसमां, साया मेरा,
तू ही बंदगी, तू मेरा खुदा।

तेरा ही लहू, नसों में बहा,
तुझ से मिला मैं, अब जुदा हु कहाँ।


एक और साथी की वियुक्ति की टीस, अर्जुन के सीने में धंस गयी। वो रात अर्जुन को अनुत्तरित सवालो से द्वंद करने के लिए छोटी लग रही थी।
"क्या गुज़र रही होगी राघव के परिवार पर, माँ-बाउजी, पत्नी और बच्चे कैसे ये संताप सहेंगे। कैसी त्रासदी है? जब बन्दूक से निकली गोली किसी को वापस जिंदा नहीं कर सकती, वो तो केवल बच्चो को अनाथ, मांग और गोद को सूनी ही करती है, तो फिर गोलिया बनती ही क्यों है? क्यों बनाते है हम लोग इसे? कहने को पूरा जहाँ भगवान ने हमारे लिए बनाया हैं और यहाँ जमीन-आसमान सब बंट गया, खून किसी का भी बहे, सरहद के इस पार या उस पार; खून तो इंसान का ही होगा, 

उधर नन्ही दुनियादारी से दूर माँ के हाथों का गरमा गरम खाना खा रही थी। 
"माँ पता है आज, बड़े वाले पार्क में, मैं और शैली खेल रही थी तब वहाँ कुछ लोगो ने पिकनिक मनाने के बाद बचा हुआ कचरा डस्टबिन की जगह वही किनारे पर फ़ेंक दिया, मैंने टोका की अंकल प्लीज डस्टबिन मैं कचरा डालिए नहीं तो पार्क गन्दा हो जायेंगा। अंकल ने कहा की डस्टबिन थोडा दूर था, लेकिन कोई बात नहीं मैं उसी में कचरा डाल देता हूँ, तभी दुसरे अंकल ने उन्हें रोका, 
"क्या सक्सेना साहब आप भी बच्चो की बातों पर गौर कर रहे हो। यहीं डाल दीजिये कचरा, दुसरे लोगो ने भी यंहा डाला हुआ है, सक्सेना साहब ये इंडिया है, अमेरिका नहीं "

"माँ अंकल ने जब कहा की ये इंडिया हैं, तो मुझे बहुत बुरा लगा, उनके बोलने के अंदाज़ में वो अभिमान और सम्मान नहीं था जो पापा के 'इंडिया' बोलने में होता है" 

माँ और दादी दोनों ही स्तब्ध रह गयी।

"बेटा, अगर तुम, अपनी क्लास मैं फेल हो जाओ तो क्या मैं और दादी, घर-घर जाकर लोगो से तुम्हारी बुराई करेंगे?

"नहीं माँ आप तो चाहोगे की मैं ज्यादा अच्छे से पढू, आप मुझ पर ज्यादा ध्यान दोगे, मुझे मोटीवेट भी करोगे"

"और जब तू अच्छे अंको से पास हो जायेगी तो मिठाई भी बाटेंगे", दादी ने चुटकी ली।

"पता है नन्ही, हम लोग ऐसा क्यों करेंगे? क्योंकि तू हमारी अपनी है, हमारा परिवार है, इसलिए हम निंदा करने के बजाय, तुम्हारी मदद करेंगे ताकि तुम बेहतर बनो और यहीं हमारी खुशियों का बहाना बनेगा। 

"बेटा ये बहुत बड़ी त्रासदी है की लोग अपने देश को अपना परिवार नहीं समझते, नहीं तो व्यंग कसने के बजाय उस चीज़ को सुधारते और गरूर करते। वो समझे ना समझे पर देश तो उन्हें अपना मानता हैं, माँ की तरह बिना शर्त अपनी गोद मैं खिलाता है, पिता की तरह जिंदगी भर अपने साए में महफूज़ रखता हैं, मिटटी से मिटटी तक का सफ़र साकार करता हैं। कभी कोई अपने माँ-बाप को किसी से कम्पेयर नहीं करता फिर ये लोग देश को और उसके विकास को किसी दुसरे देश से क्यों नापते है?" 

आर्डर आया है, सुबह 5 बजे उत्तराखंड के लिए कूच करना है, लाखों जाने फंसी है केदारनाथ में। अर्जुन सिंह 4 बजे ही मुस्तैद हो गए। भारी बारिश और भूस्खलन के बाद केदारनाथ में हजारो-लाखो लोग मलबो में फंसे, मदद का इंतजार कर रहे है। नेता अपनी-अपनी जीभ की नुमाइश कर रहे है। मीडिया अलग अलग मन बहलाऊ तरीके से खबरे दे रहा है। इन सबके बीच स्थानीय लोग और भारतीय सेना फरिश्तो का फ़र्ज़ निभा रही है। 

तीन-चार दिनों में विरोधी मौसम के बावजूद हजारो लोगो को सुरक्षित निकाल लिया गया फिर भी स्थिति बदत्तर होती जा रही है। वहां का वीभत्स दृश्य अकल्पनीय हैं हर तरफ लाशें ऐसे फैली है की खुद के जिन्दा होने पर भी संदेह हो जाए। अर्जुन एक मासूम चीत्कार की तरफ दौड़ा, उधर एक हाथ मलबे से बाहर आने को है, हाथ पकड़ कर खींचा, हाथ उखड कर हाथों में ही रह गया, कलेजा सन्न हो गया, लाशें क्षत-विक्षत होने के साथ-2 गंदे पानी में सड़ चुकी है। विदीर्ण हृदय के साथ उस हाथ को धीरे से भूमि पर रख दिया। वज्राघात तो अभी बाकि था, "ये क्या हाथ की एक अंगुली तो ताज़ा कटी हुयी है, हे इश्वर किसी राक्षस ने अंगूठी के लिए…" 

वापस वहीँ करुण 'चीख', उस पुकार की दिशा में झाडियों के पीछे गया वहां एक बेसुधसा बच्चा छटपटा रहा था, उसने ऊँगली से ईशारा किया, अर्जुन ने पलट कर देखा, "पूरी स्कूल बस ही उलटी पड़ी है", घर को अपनी रौनक से महका देने वाले बच्चो की लाशो से भंयकर दुर्गन्ध आ रही थी। "हे महादेव कैसी बेरुखी हैं और क्या-क्या देखना रह गया मुझे" बच्चे को गोद मैं ले कर राहत शिविर की तरफ दौड़ा।

उधर नन्ही के गाँव के बड़े मंदिर में धार्मिक कार्यकर्म उन्माद पर हैं, बाहर जुलुस की तैयारी हैं, हाथी, घोड़े, बाजे-गाजे, ढोल-मंजीरा, मिठाई-फूल, झंडे-झंडियां सभी बच्चो के लिए कौतुहल का सबब बनी हुयी हैं। भक्तजन का अलौकिक आन्नद चरम पर है। नृत्य, भजन-गान के इस माहौल मैं हर कोई यति - योगी जान पड़ता हैं। 

अनायास उत्सवी उल्लास के वातावरण में खलल हुआ, किसी अनैतिक तत्व ने जुलुस पर कचरा फ़ेंक दिया। निठ्ठले हुडदंगियो को मौका मिला। कभी शिव लिंग पर जल नहीं चढ़ाया; आज धर्म के नाम पर मासूमों पर चढ़ाई को तत्पर है। कभी कुरान को छुआ नहीं आज हाथ से तलवारे नहीं छूट रही। सोते गाँव में तांडव जाग उठा, दंगाइयों ने घर फूँक दिए, सपने जला दिए।

उधर केदारनाथ धाम में आधी रात को भी अर्जुन के अरमान नहीं बुझे। "अंकल!", मदद के लिए चीख-चीख कर थके हुए गले से आई इस थर्रायी हुयी आवाज़ ने अर्जुन को भी कंपा दिया। "मेरे बाबा उधर पत्थर के नीचे दबे है" पीछे खड़े लगभग 12 साल के लड़के ने एक तरफ इशारा करते हुए कहाँ। बूढा शरीर संवेंदना शुन्य आँखों से मौत की बाट जोह रहा था। 

"आप घबराइए नहीं मैं अभी आपको निकाल लूँगा।",बाबा के दोनों पैरो पर चट्टान आ गिरी है, सारा दर्द 3 दिन में बह कर जम गया। अर्जुन ने शरीर में बचे शक्ति के आखरी ज़र्रे का इस्तेमाल करते हुए चट्टान को एक तरफ धकेल दिया। बूढ़े बाबा को लगा 'वर्दी में भगवान' आए है। 

माँ ने नन्ही को गोद में लिया और जलते मकान से झुलसते हुए हुए जिंदगी की दिशा मैं भागी, नन्ही की दादी सुबह ही शहर अपने भाई के यहाँ चली गयी थी। "मम्मी अब हम कहाँ जायेंगे, वो लोग तो सामने वाले रास्ते में भी है", "बेटा तू इस बड़े पाइप में छुप जा, मैं उस पेड़ के पीछे चली जाती हूँ; घबराना मत मैं यही हूँ"। 
दंगाईयो की राह भटक गयी एक गोली, माँ के ममतामयी दिल से जा चिपकी, अंतिम बार नन्ही को देखने की हसरत दिल में समेटे, कटे वृक्ष की भांति निष्प्राण धरती पर आ गिरी। 

कैसी बिडम्बना है एक तरफ नन्ही के पापा रक्षक बन लोगो की दुआए लूट रहे हैं, दूसरी और किसी हैवान ने उसकी मम्मी को दुआ कबूल करने के वाले खुदा के पास भेज दिया। नन्ही की आँखे ऊपर चढ़ गयी, कलेजा फट जा रहा था, अँधेरी सिसकती रात में उसे माँ की लाश के पास बैठे देख, धर्म के मर्म से बेगाने पशुओ के दिल तो नहीं लेकिन आस-पास के पत्थर जरूर भी पिघल गए ह़ोंगे। 

अर्जुन सिंह गाँव पहुंचा, फ़र्ज़ के लिए पसीने की जगह खून बहाना उन्हें कभी नागवार ना हुआ लेकिन आज रक्त अश्रु की वेदना असह्य प्रतीत हो रही है। नन्ही दौड़ कर पापा से लिपट गई। आँखों में अथाह वेदना, निस्तेज चेहरा देख कर उस शूरवीर का शरीर भी जर्द हो गया। पापा के घर आने का उन्माद, दुःख के आवेश में विलीन हो गया। पापा ने नन्ही के सर पर हाथ फेरा, माँ की कमी को कैसे झुठलाऊ, आँखे फूल गयी है; लेश्मात्र भी आशंका नहीं थी की प्रियतम यूँ मझधार मैं छोड़ जायेगी। 

दो मोटी बूंदे, नन्ही के गालो से लुढ़कती हुयी, पापा के हाथों में समा गयी, अर्जुन के हृदय पर नश्तर चलने लगा। वो सोच मैं पड़ गया "बिना माँ के बच्चा ब्रह्माण्ड में अकेला होता हैं, माँ साथ हो तो पूरी दुनिया पास होती हैं। बच्चे की तोतली बोली जग के लिए भले ही हंसी का कारण हो लेकिन माँ के लिए मुस्कुराने का बहाना होती है। मनपसंद पकवान खा कर निंदिया मग्न बच्चे को कहाँ ध्यान की माँ ने ये रात भी फाको से गुजारी है। रेलगाड़ी के इंजन का तेज भोंपू भी दिन भर की भाग-दौड़ के बाद गहन निंद्रा से माँ को जगा पाने में विफल है वहीँ बच्चे का सूक्ष्म क्रंदन सौ कदम की दूरी से माँ को खीच लाता है, कैसे रहेगी नन्ही अब माँ के बगैर?"


तू माँ है मेरी, मैं हूँ तेरा गुरुर,
क्यों छोड़ा अकेला, मेरा क्या कसूर।

माँ कह देना, तू आएगी जरूर,
नादां हूँ मैं थोड़ी, ना रहना यूँ दूर।

तू कहती हैं ना, बेटा तू हैं मेरा नूर,
क्यों रूठी हैं माँ तू, क्या हो गयी भूल।


सात साल गुज़र गए।

"नन्ही, बेटा इतनी सुबह-सुबह कहा जा रही हो?, 15 दिनों के लिए ही आया हूँ, पापा के पास भी तो बैठो थोड़ी देर"
"पापा बस अभी दो घंटे मैं आई, फिर सारा दिन ढेर सारी बातें करेंगे "कहते-कहते नहीं ने स्कूटी स्टार्ट की।

"बेटा, मंदिर के पास वाले मैदान में तीन महीने पहले करीब 150 पोधे लगाए थे, रोज़ सुबह जा कर उन्ही को पानी देकर आती है; कहती है दादी, पूरे गाँव को फिर से हरा-भरा कर दूंगी" 

"माँ, कुए के पास जो कच्चा रास्ता था, वहां भी तो नन्ही ने सरकारी ऑफिस में चक्कर लगा-लगा कर पक्की सड़क बनवा दी, अब तो बिजली वाले भी डरते है बार-बार बिजली काटने से, कहीं नन्ही आ कर धरना ना दे दे"

"तूझे पता नहीं, शाम को सरपंच जी के आँगन में गाँव की बुजुर्ग औरतो और पुरुषो को पढ़ाती है, कभी-कभी तो मुझे भी खींच ले जाती है। 

"एक दिन कह रही थी, दादी, मेरी माँ नहीं रही तो क्या, मेरी भारतमाँ तो हमेशा मेरे साथ रहेगी, मैं अपने मातृभूमि को माँ की तरह प्यार करती रहूंगी। देश और देशवासी उन्नत रहे यही मेरा ध्येय है; और फिर मेरी भारतमाँ को कोई विकृत धर्म का ठेकेदार भी मुझसे छीन नहीं सकता क्योंकि इसका कोई एक 'धर्म' जो नहीं है, यह तो हिन्दू भी हैं और मुस्लिम भी"

"भारत माँ की इस बेटी को सलाम" अर्जुन ने सजल नेत्रों से कहा। 

रचियता: कपिल  चाण्डक 
Author: Kapil Chandak



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