Thursday, September 26, 2013

सुपरहीरो/Superhero (कहानी)



"रोहित… रोहित कहाँ है? जल्दी आ शुरू हो गया, 'कैप्टेन कपिल और बिजली का चोर' 

…'कैप्टेन कपिल' और उसका साथी 'चमटू' कमअक्ल सुपरहीरो हैं जिन्होंने दुनिया बचाने का बेडा अपने ऊपर उठा कर बेडा गर्क किया हुआ है... 

दोनों अपने गोपनीय अड्डे पर काला बुल्ला (उनका परम्परागत शत्रु) पर अनुसंधान कर रहे थे। अचानक बिजली चली जाती है, चारो और स्याह अंधकार फैल जाता है जैसे किसी काले हब्शी ने पूरे शहर को गले लगा लिया हो। कबूतरों की गुटर-गू से जिन्दगी की सुगबुगाहट जान पड़ती है नहीं तो अँधेरा, खौफ़ का ही पर्याय है। 

चमटू ने खिड़की से बाहर देखा, "कैप्टेन पूरे शहर की लाइट गुल है, कहीं ये काला बुल्ला का कोई नया दांव तो नहीं है?, लेकिन वो तो जेल मैं बंद हैं!"

कैप्टेन कपिल: "मेरे अनुमान से, उसने जेल में गश्त लगा रहे, सिपाही को बोला होगा, देख-देख उधर उड़ने वाला कबूतर, फिर सिपाही ने ऊपर देखते हुए ताज्जुब किया होगा, कहाँ है? कहाँ हैं?, मौका पा कर उसने जेल के पास खड़े उस सिपाही की गर्दन पकड़ ली होगी और एक हलके सधे हुए वार से उसे चित करके उसकी जेब से चाभी निकल कर भाग गया होगा, रास्ते में लिफ्ट नहीं मिलने पर उसने बेहोश सिपाही की जेब से निकाले हुए बस पास का इस्तेमाल कर सीधे पॉवर हाउस पहुँचा होगा और फिर वहां गड़बड़ी की होगी ताकि पूरे शहर की बिजली चली जाए और काला बुल्ला अँधेरे में खो जाए।"

चमटू: क्या बात है बॉस क्या गेस किया है यू आर रियली अ सुपर-डुपर सुपरहीरो, लेकिन कैप्टेन यहीं बात अगर आप अपने पेंट की ज़िप बंद करके बोलते तो, दर्शक ज्यादा इम्प्रेस होते, ही ही ही"

कैप्टेन (खिसियाते हुए, ज़िप बंद करता है जो वो आज फिर भूल गया था) :"चमटू, हँसना बंद करो, अब बात बहुत गंभीर हो गयी है, लगता है अब वक़्त आ गया हैं अपना सबसे खतरनाक हथियार वूडी-ऑइला का इस्तेमाल करने का"

चमटू: "आपका मतलब उस तेल पिए हुए डंडे से हैं ना कैप्टेन, वूडी-ऑइला! सुनने वाला तो नाम से ही मर जाए, ही ही ही" 

तभी सूक्ष्म रौशनी का झमाका होता, "लाइट आ गयी लाइट आ गयी" अरे आंटी आप! चमटू जैसे नींद की औंघाई से जागा होl 

… ये गोपनीय अड्डा और कुछ नहीं एक पेइंग गेस्ट हाउस है, जहाँ कैप्टेन कपिल और चमटू रहते है, आंटी वहां की मालकिन है।... 

आंटी: " नमूनों फ्यूज उड़ गया था, मैंने ठीक कर दिया"

"लेकिन फिर आस-पास के सारे घरो की बिजली क्यों बंद है"

"क्योंकि बाकि लोग उल्लू नहीं है जो रात के तीन बजे तक जागते रहे, आंटी ने चिल्लाते हुए दरवाजा बंद किया।" 


रोहित और निहार हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए। 

"ये कैप्टेन कपिल और चमटू दोनों बस कमाल के हैं, मैं इनका कोई भी एपिसोड कभी मिस नहीं कर सकता, सुबह-सुबह ऑफिस जाने से पहले इनके कारनामे देख लो और पूरा दिन हंसते हंसते निकल जाएगा" निहार ने ठिठोली की।

"भैया लेकिन हमारे सुपरहीरो का क्या हुआ? दो वीक निकल गए अभी तक कुछ फाइनल नहीं हुआ"

निहार और रोहित दोनों भाई है, निहार 30 और रोहित 25 वर्ष का हैं, बचपन से ही दोनों सुपरहीरो के उन्मादी हैं, एक सुपर कमांडो ध्रुव और बेटमेन को आदर्श मानता है तो दूसरा सुपरमेन और नागराज को ले कर उन्मत्त रहता है। निहार का कद बढ़ गया, साइकिल के दो पहिये चार से प्रतिस्थापित हो गए, आँखों से कौतुहल उतर कर, चश्मे को निमंत्रित कर गया। गालो पर उगी ढाढ़ी ने गोलू-मोलू की उपाधि से विभक्त कर दिया। वहीँ रोहित के स्कूल बैग का वजन, कॉलेज में आते ही एक-चोथाई रह गया, सूरज से पहले जागने वाला अब, अँधेरी रातों कर अनुरागी बन बैठा, यौवन दबे पाँव घुसपैठ कर चुका है पर लड़कपन को चित्त होना बाकि रह गया। निहार और उसका छोटा भाई ऑफिस और इंजीनियरिंग की पढ़ाई के अलावा अभी भी अपने सपनो को जी रहे हैं। दोनों को एक नया सुपर हीरो बनाने का जूनून है जो सभी मौजूदा सुपरहीरो से अद्वितीय हो।

"रोहित मेरा रिसर्च अभी जारी है, कल सन्डे है कल डिसकस करते है", लैपटॉप बैग उठाते हुए निहार, पिताजी के चरण स्पर्श करके मिली दुआऒ को, अपने पांच साल के बेटे को सौंपते हुए, पत्नी की मुस्कान की पावती के साथ ऑफिस के लिए निकल पड़ा।

आज ऑफिस से जल्दी निकलना हैं, अपने बेटे का नए वाले मॉल में गेम्स खिलाने का 7 दिन पुराना तकाज़ा या फिर जीवनसाथी को समय ना दे पाना की शिकायत का अंत अथवा पिताजी को बीमार शर्माजी से मिला लाने का अनुरोध इनमें से किसी भी एक कार्य की सिद्धी जरूरी है।

ऑफिस! इंसानी जरूरतों को मुकम्मल करने के लिए सशर्त बनी एक मण्डली, उधर गिरधर बाबु बैठे है जिनके लिए एक दिन में दो काम करना एक अभिशाप हैं, उनकी "बने रहो पगला काम करेगा अगला" नारे में अलंघ्य आस्था हैं। निहार के आते ही गिरधर बाबु ने टोका गोयल साहब ने बुलाया है अन्दर, अभी बंसलजी की क्लास लग रही हैं उनके बाद जाना।

बंसलजी, रंग गाढ़ा, मानो किसी ने कोलतार का ड्रम उलट दिया हो, बॉस के सामने खरगोश और स्टाफ के सामने पूरा जोश, अन्दर जाने से पहले, वीररस के कशीदे पढ़ रहे थे। भीतर बॉस के तेवर से बंसलजी जी का नियंत्रण इस तरह डगमगाया की सांस को अन्दर की तरफ खीच कर तोंद को कम करने का प्रयास विफल हो गया।

बॉस! यानि गोयल साहब, मध्यम कद-काठी, किसी मूर्तिकार की रद्दी रचना, सर पर मुट्ठी भर बाल छितराए है मानो किसी ने पान खा कर पीक की गोली मारी हो, चेहरा सिंघाड़े की याद दिला दे।, 48 किलो वजनी कृशकाय शरीर के अधिपति, मुहँ खोले तो, ऑफिस के शीशे अपनी-अपनी खैरियत के लिए भगवान के साधक बन जाते है। 

"पता नहीं आज कौनसा ड्रामा होगा? वैसे ही कमर दर्द से अकड़ी जा रही है" निहार ने पेरासिटामोल पानी के साथ गटकते हुए कहाँ।
बहुधा ऑफिस में लोग घंटो सिद्ध योगीओ के समान एक ही मुद्रा में की-बोर्ड पर किटर-पिटर कर लेते हैं और अन्दर बैठा बॉस उनकी कुर्सी पर अचल और अडिग भंगिमा से भले ही तृप्त हो जाए लेकिन उसे इस बात की सुध क्यों नहीं आती की जब वो खुद नौसिखिया हुआ करता था तो, वो भी घंटो कुर्सी तोड़ कर अपने मालिक को छलता था। आपको पता है की हाकिम 8 की जगह 10-11 घंटे रोकेगा तो काम भी आपको मंध्यांतर के बाद ही याद आता है। इस उहापोह में बाबू के साथ ढकोसला करते-करते आप अपनी सेहत की बाजी लगा बैठते हैं, और बट्टाखाता तंदुस्र्स्ती के लिए आलस्य व उच्छृंखलता के स्थान पर टेक्नोलॉजी को कलंकित हो जाती है। 

बंसलजी बॉस से छूटते ही, ये निश्चित होने पर की दरवाजा बंद हो गया अब बडबडाहट अन्दर नहीं जायेगी, पीठ पर लदे फटकार और घुडकियों के गठ्ठर की अवहेलना कर, अपने चिर-परिचित अंदाज में लोट आये, "सुना आया मैं भी अन्दर, बॉस होंगे अपनी जगह, यहाँ कौन दबता हैं? गलती तो की हैं कोई अपराध तो नहीं किया ना", पतली-पतली 9-10 बालो वाली मूच्छो पर तांव देते हुए, बंसलजी सहसा जोश में आ गए, "हम उन लोगो में से है जो जेब में इस्तीफ़ा ले कर घुमते है, पचासों जॉब भरे पड़े है, लेकिन थोडा लिहाज़ है, इसलिए पड़े है, हाथ चलते रहे इसलिए आ जाता हूँ नहीं तो बीघो जमीन पड़ी हैं, दुकाने-मकानों की गिनती नहीं है, तीन पुश्ते भी कम पड़ दोनो हाथो से लुटाने के लिए" 

लोगो के लिए विस्मय की बात ये थी की, यहीं बंसलजी जो पिछले 5 मिनट में संपन्न बन गए तो पान वाले का बकाया 60 रुपया बचाने के लिए पिछले 20 दिनों से घर जाने का लम्बा रास्ता क्यों अख्तियार कर रहे है?

"निहार, विकास आज आया नहीं, तुम उसकी फाइल्स भी कम्पलीट कर दो, अर्जेंट है" गोयल साहब ने अपना फ़तवा सुनाया। 

"सर लेकिन मेरे पास पहले से ही 3 अर्जेंट असाइनमेंट्स हैं, और आज मुझे थोडा टाइम पर भी निकलना था तो वो... "

"तो, ऑफिस बंद करू दू, तुम सब लोगो को फ़ोन करके पुछू, गुड मोर्निंग निहारजी अगर आप के पास थोडा समय हो तो आज ऑफिस खोल जाए, वहां हेडऑफिस से गोलिया चल रही हैं और यंहा, सर मे आई गो टू टॉयलेट? मे आई गो अर्ली? व्हाट नॉनसेंस" 

"ये खन्ना एसोसिएशन की फाइल लो, इसे कम्पलीट करके शाम तक दो, साथ ही मटेरियल रिपोर्ट का रिव्यु और बैंक का 3 महीने का रिकोंसिलेशन भी मंडे को 11 बजे तक मेरी डेस्क पर होना चाहिए मिस्टर निहार, और हाँ टाइम पर ऑफिस आया करो।"

टाइम वाली बात ने बाकि सभी बातो को फीका कर दिया, निहार दांत पीसते हुए सीट पर आ कर बैठ गया, "यहाँ साला रात को 12-12 बजे तक रुको, कोई पीठ थपथपाने वाला नहीं है और सुबह एक सेकंड भी लेट हो जाओ तो अछूतो सा सलूक होता है। इन्हें तो वो लोग पसंद है जो ऑफिस में आते ही नींद की गोली खाले और शाम 7-8 बजे का अलार्म लगा कर उठ जाए, बस देर तक बैठ जाओ भले ही पूरे दिन एक पेपर तक हाथ में ना लो। हम जैसे लोग 8 घंटे के काम को 4 घंटे में कर दे तो क्या हाफ डे में घर जाने के लिए कह देंगे?" 

उधर रोहित कॉलेज पहुंचने को है, अगले मेट्रो स्टेशन पर ही है कॉलेज हैं, शायद मेट्रो में लोगो को देख कर 'सुपरहीरो' के कोस्ट्युम का आईडिया आ जाए। रोहित को बचपन से ही सुपर हीरो बनने शगल था, मम्मी का ब्लैक स्कार्फ को पीछे बाँध कर 'बेटमेन' बनना हो या गत्ते को स्टार की शेप में काटने के बाद नेकर के बटन पर चिपका, पापा की मोटर बाइक पर बैठ कर, चिल्लाना मैं हूँ 'सुपर कमांडो ध्रुव'। वो तो बाद में मालूम चला की वो गत्ता नहीं, पापा की इम्पोर्टेन्ट फाइल थी। डांट की वेदना ने भोजन से मोह भंग कर दिया, लेकिन जब स्नेहभाजन भिन्डी की सब्जी की बोध हुआ तो भोजन अस्वीकरण का कड़ा निश्चय सहर्ष वापस लेना पड़ा। 'ध्रुव' से प्रभावित रोहित हमेशा पठन-वाचन में अव्वल रहा। निर्भीकता, खरापन, नैतिकता व स्थिरता ने कभी उसका साथ नहीं छोड़ा। 

सामने खड़े किशोर की नीची उतरती जीन्स ने कॉस्टयूम के आईडिया में खलल पैदा कर दिया। मेट्रो में नीचे झुके आधुनिक चेहरे ज़मीं से अभी काफी दूर है। झुके हुए चेहरे,जो कभी केवल इम्तिहान के समय हर देवीय मूर्त के समक्ष स्वयं नतमस्तक होते थे, उन्हें देख कर ये निचोड़ निकलता है की आज के ज़माने में केवल वही सर उठा कर जी सकता है, जिसके पास स्मार्ट फ़ोन ना हो ही ही ही। सनातन काल से उच्चतर होने की प्रतिद्वंद्विता अस्तित्व में रही है, उच्चतर होने के क्रम में सौंदर्य व सौष्ठवता अग्रणी रहे है यद्यपि फेसबुक काल में आपकी सौंदर्यता तब तक ही जब तक आपका 30 दिवस का फोटोशॉप ट्रायल पैक एक्सपायर नहीं हुआ हो हा हा हा ।

रोहित का ध्यान, वहां कुछ छात्रो के समूह पर गया, 

एक ने कहा "बेटा कर कॉलेज में प्लेसमेंट है, प्रैक्टिस करते है, मैं इंटरव्यू लेता हु तेरा",

"हम्म तो आप प्रोग्रामिंग एंड लैंग्वेजेज के बारे में कितना जानते है?" 

"तेरे से ज्यादा जानता हु"

"आपकी स्ट्रेंथ क्या है"

"मैं तेज शोर-गुल वाली क्लास में भी सो सकता हूँ, 2 लीटर पेप्सी एक सांस में पी सकता हूँ" 

"आप की होब्बीज क्या है?"

"बस को पकड़ने के लिए उसके पीछे भागना, देर रात जाग कर टोरेंट से डाउनलोड की हुयी 2 -3 मूवीज बेक टू बेक देखना, 

(तेज ठहाको से वो कोच गूँज उठा)

"अबे ऐसे देंगा इंटरव्यू"

"यार सच तो यही है, लेकिन मुझे कौनसी हीरोगिरी करनी हैं सच बोल कर, वो ही कॉलेज वाला रट्टा, वहां भी शुरू कर दूंगा" 


मेट्रो स्टेशन से नीचे उतर कर चिप्स के खाली पैकेट रोड पर फैंक कर छात्र, कॉलेज के तरफ लपके। रोहित को बैटमैन की मूवी 'डार्क नाईट राय्जेज' याद आती है जिसमे अपाहिज हीरो अपनी गोथमसिटी को मुसीबत में देख कर अपनी शारीरिक अक्षमता को भूल फिर से अपने शहर के लिए सभी खतरों से टकरा जाता है और ये लोग अपने शहर को बदरंग करने में भी कोई आमोद ढूंढ रहे है। रोहित की उग्रता ने उन छात्रो का ध्यानाकर्षण तो किया लेकिन दो टूक जवाब से उन्होंने इससे इति कर ली। "आस-पास डस्टबिन नहीं कहाँ फैंके" 

रोहित ने 'सुपर कमांडो ध्रुव' की कॉमिक्स मैं अनेको बार कई जगह पढ़ा हैं की जब ध्रुव (जिसके पास दुसरे सुपरहीरो के सामान कोई अलौकिक ताकत नहीं है) किसी भी दुष्कर और असाध्य खतरे या स्थिति में होता है तो वो उससे निपटने के लिए वहां मौजूद चीजों का ही इस्तेमाल करता है वो बहाना नहीं बना सकता की मेरे पास ये नहीं हैं, वो नहीं है, तो मैं इस बाधा से कैसे पार पाऊ। आप को हर परिस्थिति का सामना उपलब्ध संसाधनो से करना है। रोहित ने वो रेपर उठाये और अपने बैग में रख लिए। 

सात बज चुके हैं निहार पहले ही लेट हो चूका है, "ये क्या 2007 और 2009 में खन्ना एसोसिएशन को गलती से दो बार स्कीम क्रेडिट नोट इशू हो गया वो भी टोटल 83 लाख का, केश या बैंक ट्रांजेक्शन होता तो इजीली पकड़ा जाता, लेकिन फायदा क्रेडिट नोट के थ्रू गया है, ये विकास भी क्या करता है? इतनी बड़ी मिस्टेक को अभी तक नहीं पकड़ पाया। बॉस को बताना पड़ेगा, एक मिनट! बॉस को बताने का मतलब हैं 4 घंटे और ऑफिस में बैठना और फिर अगर ये फाइल मेरे पास नहीं आई होती तब भी 83 लाख का लोस कौन सा पकड़ा जाता, जो चल रहा हैं, चलने दो।" 

रास्ते में जल्दबाजी और हडबडाहट में रेड सिग्नल का ध्यान नहीं रहा, कांस्टेबल ने रोका, 

"पाँचसौ का चालान कटेगा" 

"लेकिन मैं... तो... "

"500 रखो, रसीद लो और आगे बढ़ो" 

कुछ समझौता वार्ता के बाद उदार, स्वार्थहीन, भद्र सज्जन ने सौ रुपये लेना स्वीकार किया, बस शर्त थी की रसीद नहीं मिलेंगी। निहार को थोडा सा अपराध बोध हुआ लेकिन फिर सोचा मुझे कौनसे नैतिकता के झंडे गाड़ने हैं।

"आज का तो दिन ही ख़राब है, अब घर जा कर आज कौन सा बहाना बनाऊंगा, काश की मैं सुपरहीरो होता और सब कुछ ठीक कर देता"

खैर निहार साहब घर पहुँचे, पिताजी को कल के लिए आश्वत किया, पूरे दिन से तैयार पिताजी को दोस्त (शर्माजी) से ना मिल पाने का विषाद, निहार की आखों से छिपा नहीं रहा। पत्नी की अनकही शिकायत को मुस्कराहट से कम करने का प्रयास भी कमतर ही रहा, बेटा की नाराज़गी से तो निंदिया रानी ने बचा लिया, जो पापा से उलट, हमेशा समय पर आती है। 


अगले दिन, रविवार सुबह, दोनों भाई टीवी के सामने।

'कैप्टेन कपिल और गुच्चु गमछा'

चमटू: "कैप्टेन मैंने सुना है की गुच्चु गमछा एक नंबर का वाहियात, जलील और बैगैरत बन्दा है"

कैप्टेन: "लोग तेरे बारे मैं भी ऐसा ही कहते है" (जोरदार ठहाका)

चमटू : "कैप्टेन मैंने हवा में उड़ने वाला सूट बना लिया"

कैप्टेन: "शाबाश चमटू, इसकी मदद से गुच्चु गमछा ज्यादा देर तक बच नहीं पायेगा, ला वो सूट मुझे दे"

चमटू: "लेकिन बॉस वो सूट केवल हवाई जहाज में ही पहन सकते है, तब ही तो उड़ पायेंगे ही ही ही" 

"वो देखो कैप्टेन सामने साइकिल पर गुच्चु गमछा आ रहा है"

"हाँ भाई पेट्रोल जो इनता महंगा है, बंदा एको-फ्रेंडली हैं। लेकिन यहाँ साइकिल पार्किंग बहुत महँगी है, उससे ये मुलकात बहुत महँगी पड़ेगी" 

गुच्चु गमछा: (पार्किंग चार्जेज देने के बाद बचे हुए छुट्टे पैसे गिनते हुए) "पचास पैसे कम है, धोखा हुआ है गुच्चु गमछा के साथ, इस पचास पैसे की छनक 87 दिन तक गूंजेगी, दुनियावालो"

"कैप्टेन कपिल! और चमटू! तैयार हो जाओ मरने के लिए"

कैप्टेन: "प्लीज वेट, थ्री मिनट्स ओनली"

गुच्चु गमछा: ???

कैप्टेन: "जल्दी कर चमटू , वो लाल वाला ठीक रहेगा, अरे ये थोडा नीचे कर, हां अब ठीक है, इसका बटन बहुत टाइट है " 

चमटू: "कैप्टेन आप तो जम रहे हो" 

गुच्चु गमछा : (चिल्लाते हुए) अरे कोई बतायेगा ये हो क्या रहा है? मेने साइकिल किराए पर ली है, मुझे जल्दी जाना है, (धीमी आवाज़ में) प्लीज मुझ से लड़ लो, प्लीज मर जाओ ना"

कैप्टेन: "भाई तूने ही तो कहा था की मरने के लिए तैयार हो जाओ, इसलिए हमने मरने के लिए स्पेशल ड्रेस सिलवाइ थी आज पहली बार पहन का देखा है, अब तैयार होने में थोडा तो टाइम लगता ही हैं, स्माइल प्लीज" (खुद की और चमटू की फेसबुक के लिए ऑटो मोड पर फोटो लेते हुए)

गुच्चु गमछा: "हा हा हा मैंने कहाँ मरने के लिए तैयार और तुम लोग वाकई वैसे वाले तैयार… हा हा हा… हा हा हा" (धम्म, जमीन पर धडाम) 

… गुच्चु गमछा हँसते-हँसते मर गया, हंसी ही इसकी कमजोरी थी। एक बार फिर कैप्टेन कपिल और चमटू ने दुनिया बचा ली। (हा हा हा)… 


रोहित और निहाल बच्चो की तरह खिलखिला कर हंस पड़े। 

"सही है हर प्रॉब्लम की तोड़ है हंसी"

"एक लाफ्टर एक स्माइल पूरी टेंशन को धो डालती हैं"

"भैया हमारा सुपर हीरो भी हँसमुख होगा, विलेन का भी थोडा एंटरटेनमेंट हो जाएगा हा हा हा"

रोहित , एक हंसमुख व्यक्ति अपने आप में सुपरहीरो है, कल का दिन अच्छा नहीं गया, लेकिन अगर चेहरे पर मुस्कान होती तो शायद इतना बुरा नहीं जाता।"

"सही कहा भैया, काफी रिसर्च करने पर मैं मानता हूँ की हमारा सुपरहीरो बाकि हीरो की तरह ड्यूटीफुल, डेडिकेटेड, आइडियलिस्टिक, हेल्पफुल, फ्रैंक, बोल्ड, फिट, जेनरस और फैथफुल होना चाहिए लेकिन उसके पास कोई सुपर नेचुरल पॉवर नहीं होगी"

"सुपर कमांडो ध्रुव और डोगा की तरह?"

"हाँ, लेकिन वो इन दोनों से भी थोडा अलग होगा"

"अलग?"

"अलग!, क्योंकि वो लिविंग सुपरहीरो होगा, बिलकुल जीता-जागता रियल लाइफ सुपरहीरो , स्क्रीन और कॉमिक्स फ्रेम से बाहर"

"रोहित तू, पागल हो गया क्या? लिविंग सुपर हीरो कहाँ से आएगा" 

"भैया, वो आप हो!"

"जबसे समझ आई है, आप को ही आदर्श माना हैं, आप के कंधो पर बैठ कर दुनिया के उतार चढाव समझे हैं, आप में वो सब क्षमताये हैं जिनसे एक सुपरहीरो बनता है"

निहार सकते में आ गया, सहसा छाती में एक उबाल उठा की इस मिथ्या, बनावटी, आभासी प्रतिरूप को खींच कर उतार दू और चिल्ला-चिल्ला कर बोल दू की मेरे जैसा अधर्मी, अविश्वसनीय, अनुत्तरदायी, छली, मंथर और संयमहीन भला कौन होगा, लेकिन रोहित के सजल आँखों में छलक रहे विश्वास और प्रेम ने उसकी जिह्वा को भीतर ही समेट दिया।

रविवार सुबह निहार और अवकाशों से भिन्न जल्दी उठा, बेटे को कंधे पर बैठा उद्यान की सैर करवाई, खेल रहे बच्चो को लंगड़ी-टांग सिखाया, तथापि इस खेल में बचपन से चली आ रही अपराजेयता को निहार ने कुछ मासूम खिलखिलाहट के लिए गँवा दी। विषाद और उदास समझे जाने वाली बुजुर्ग मण्डली में निहार के सम्मिलित होते ही हंसी ठट्ठा की खोज हुयी। आरोग्यता हेतु योगा किया जो वर्षो किये जा रहे स्वांग और समयाभाव दलीलों से कभी स्मरण नहीं हुआ। आखिर सुपरहीरो के लिए फिटनेस तो अहम् है ही। रुग्ण शर्माजी की पिताजी से भेंट करवाई, लगे हाथो कुछ धार्मिक पुस्तके अप्रत्याशित उपहार दे कर सौभाग्य के वरदान भी बटोरे।

श्रीमती को दोपहर सिनेमा चलने का प्रस्ताव रखा। 
"दोपहर नहीं रात को चलेंगे"
"रात को भी चल सकते है लेकिन एक रिस्क है"
"रिस्क?"
"कहीं लोग आपको चाँद समझ कर अपना व्रत न तोड़ ले"
प्रेम पर वर्षो बाद पुराना रंग चढ़ गया। 

संध्या से पहले मोहल्ले की पगडण्डी पर लगे सभी पौधों को आवरण से संरक्षित किया। काफी समय बाद, शाम को पुराने दोस्तों के मेसेज पढने के बजाय उनकी आवाजे सुनी, अगले दिन पहली बार कोई स्वेच्छापूर्ण गोयल साहब के केबिन मैं घुसा, खन्ना एसोसिएशन वाली बात बताते हुए उस का रिकोंसिलेशन का स्टेटमेंट सुपुर्द करके गोयलजी के मुहँ से प्रशंसा सुनने वाले दुनिया के इकलौते और प्रारम्भिक व्यक्ति बने। 

उधर रोहित मंद-मंद आनंदित हो रहा हैं, क्यों ना हो, कल तक सबके लिए अनचाहे बनते जा रहे बड़े भैया से एक झूठा पर मीठासा विश्वास दर्शा कर उसने असली सुपर हीरो की खोज कर ली थी, जो बच्चो के खिलखिलाहट, बुजुर्गो की दुआओं, दोस्तों की मस्ती, हमसफ़र के प्रेम, अभिभावकों के सपनों, समाज की जिम्मेदारी और प्रकृति की ख़ूबसूरती में समाया है। 

"भैया आप तो सुपर हीरो बन गए, अब मैं क्या बनू"
"तू मेरा 'चमटू' हैं ना" हा हा हा...

रचियता: कपिल  चाण्डक 
Author: Kapil Chandak



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Wednesday, July 31, 2013

नन्ही का देश (कहानी)



"शैली, पता है आज मेरे पापा आ रहे है सात दिन यही रहेंगे मेरे जन्मदिन तक" 

विद्यालय में छुट्टी की घंटी की सुहानी गुंजन के साथ 'नन्ही' के पैरो में मानो पंख लग गए। 
यो ओ"… वन में दौड़ते हिरनों की भांति कुलांचे भरती हुयी नन्ही बाहर की और भागी।

इस उपक्रम में साइकिल सवार ग्वाले ने अपना संतुलन खोया, पडौसी चाची की महत्वाकांशी रंगोली की शिनाख्त मुश्किल हुयी, आठ साल के बबलू की पतंग ने आसमान की जगह सड़क पर बह रहे पानी में अपनी नियति ढूंढी, बछड़े ने मासूम गोदी में प्यार पाया, दामोदर काका के खेतो ने कुछ गन्ने और गंवाए, लाला ने जुबानी खर्चे की कीमत पर मिठाई का त्याग नहीं करने की हिमाकत पर ठेंगा और कंजूस का तमगा पाया, पंडित जी ने भगवा कपड़ो को मिट्टी की खुशबु से रूबरू होने से पहले आगाह किया "बेटी संभल कर भागो, अरे कूदना मत, धत तेरे की, पंडिताइन बाल्टी भर दो, फिर से नहाना पड़ेगा"

अंततः प्रचंड पर-अहित के बिना नन्ही ने स्कूल से घर तक का सफ़र तय किया। 

"पापा आप आ गए!" बांहों से होती हुयी नन्ही पापा के कंधो पर जा बैठी, और पूरी दुनिया की सर्वेसर्वा हो गयी।

रात का खाना हो चुका था। नन्ही की दादी दिर्घाहार के कारण अभी भी जिव्हा सुख का रस्वादन में मगन थी। नन्ही, मम्मी और पापा सब दादी के साथ ही रहते है। पापा 'अर्जुन सिंह" फ़ौज में है, घर से दूर रहकर देश और परिवार दोनों का ही संरक्षण करते है। मम्मी, नन्ही का बचपन और घर संवारती है। नन्ही कुछ दिनों में 10 साल की हो जायेगी। 

"पापा ये आपके लिए"
"ये क्या है?"
"अरे ये तो रंग गोरा करने के क्रीम है, फेयर एंड फेयर! ये मेरे लिए है? क्यो?" 
"कुछ दिनों पहले इसने हमारी शादी वाली एल्बम देखी तो कहती है मम्मी, पापा शादी के समय इतने गौरे थे अब तो रंग थोडा डार्क हो गया है, पापा आयेंगे तो उनके लिए फेयर एंड फेयर लाऊंगी ताकि पापा और भी हेंडसम लगे पहले की तरह" मम्मी ने मीठा खुलासा किया।

"पापा मैंने टीवी पर देखा है की जो गौरे नहीं होते उन्हें जॉब नहीं मिलती, कोई उनकी सिंगिंग पसंद नहीं करता, उन्हें कामयाबी नहीं मिलती और जो फेयर एंड फेयर लगा कर गौरे हो जाते है उन्हें जॉब मिल जाती है, सिंगर बन जाते है, हीरो बन जाते है, हर जगह छा जाते है, दुनिया उनके पीछे पागल हो जाती है"

अर्जुन सिंह सोच मैं पड़ जाते है की हम फौजी बाड़मेर के तपते रेगिस्तान मैं 48 डिग्री पर भी डटे रहते है, ताकि घरो मैं ए.सी. के नीचे लोग बाहर झुलसती गर्मी को चिढ़ा सके, दिन-भर चलती रेत की पैनी आंधिया हर अंग को छलनी कर देती है, लेकिन जज्बे से भरी आत्मा को नहीं भेद पाती। अपनों के बिना रेगिस्तान की ठंडी राते भी तारो की अंतहीन गिनतियों की भेंट चढ़ जाती हैं। देश की रक्षा की कीमत में अनेको मूल्यहीन चीजों का न्योछावर करने में क्रम में उनका हुलिया तो फिर बहुत पीछे है। हुलिया तो ऐसा हो की दुश्मन हमारी परछाई से भी खौफ खाए, यही हमारी ख़ूबसूरती है, तब ही देश के असली गहने कहलायेंगे।

"बेटा यही तो ट्रेजड़ी है की ऐसी बाते जिम्मेदार मीडिया के जरिये भी फ़ैल रही है, ऐसी गुमराह बातों को तरजीह दी जाती है की देश के हीरो तो फेयर और हेंडसम लोग है। अगर ऐसा होता तो आज भी हमारा देश गोरो का गुलाम होता, हम काले लोग, गोरो से उनकी छाती पर चढ़ कर हलक से आज़ादी नहीं छीन पाते"

"पापा सही कहा आपने; आप को इसकी क्या जरूरत आप तो सबसे हेंडसम हो, 6 फीट लम्बे, हट्टे-कट्टे, अकेले ही 100 लोगो को धुल में मिला दो "

सात दिन, महीने भर बाद मिली पगार की तरह जल्द ही खर्च हो गए। नन्ही के पापा देश के दुश्मनों की आँखों की किरकरी बनने फिर से राजस्थान-पकिस्तान की सीमा पर चले गए। रात में एक बार फिर से पडोसी देश ने अकारण फायरिंग शुरू कर दी। दिन-भर के सफ़र की थकान जोश और फ़र्ज़ के आगे नत-मस्तक हो गयी। सुबह करीब 6 बजे दोनों तरफ से आग उगलते दानवो ने अवकाश लिया। घायल साथियो का इलाज शुरू हुआ। 

"आराम से राघव, ज़ख्म गहरा और ताज़ा है", अर्जुन ने टोका। 
"ये जख्म नहीं, तमगे है हमारे, इस दर्द से कैसा बैर"
"वो छावनी पर लहरा रहा तिरंगा देख रहा हैं, अर्जुन; भारत माँ का आँचल है वो, माँ की गोद और दर्द तो कभी ना मिलने वाले दो किनारे है, गोद में भला उसका बच्चा बिना मुस्कुराये रह सकता है?" राघव मुस्कुराया और भारत माता की गोद में अंतहीन मीठी नींद में खो गया। 



तेरी ही मिट्टी में जन्मा मैं माँ,
फिर तेरी ही मिट्टी का जर्रा बना।

तू ही है आसमां, साया मेरा,
तू ही बंदगी, तू मेरा खुदा।

तेरा ही लहू, नसों में बहा,
तुझ से मिला मैं, अब जुदा हु कहाँ।


एक और साथी की वियुक्ति की टीस, अर्जुन के सीने में धंस गयी। वो रात अर्जुन को अनुत्तरित सवालो से द्वंद करने के लिए छोटी लग रही थी।
"क्या गुज़र रही होगी राघव के परिवार पर, माँ-बाउजी, पत्नी और बच्चे कैसे ये संताप सहेंगे। कैसी त्रासदी है? जब बन्दूक से निकली गोली किसी को वापस जिंदा नहीं कर सकती, वो तो केवल बच्चो को अनाथ, मांग और गोद को सूनी ही करती है, तो फिर गोलिया बनती ही क्यों है? क्यों बनाते है हम लोग इसे? कहने को पूरा जहाँ भगवान ने हमारे लिए बनाया हैं और यहाँ जमीन-आसमान सब बंट गया, खून किसी का भी बहे, सरहद के इस पार या उस पार; खून तो इंसान का ही होगा, 

उधर नन्ही दुनियादारी से दूर माँ के हाथों का गरमा गरम खाना खा रही थी। 
"माँ पता है आज, बड़े वाले पार्क में, मैं और शैली खेल रही थी तब वहाँ कुछ लोगो ने पिकनिक मनाने के बाद बचा हुआ कचरा डस्टबिन की जगह वही किनारे पर फ़ेंक दिया, मैंने टोका की अंकल प्लीज डस्टबिन मैं कचरा डालिए नहीं तो पार्क गन्दा हो जायेंगा। अंकल ने कहा की डस्टबिन थोडा दूर था, लेकिन कोई बात नहीं मैं उसी में कचरा डाल देता हूँ, तभी दुसरे अंकल ने उन्हें रोका, 
"क्या सक्सेना साहब आप भी बच्चो की बातों पर गौर कर रहे हो। यहीं डाल दीजिये कचरा, दुसरे लोगो ने भी यंहा डाला हुआ है, सक्सेना साहब ये इंडिया है, अमेरिका नहीं "

"माँ अंकल ने जब कहा की ये इंडिया हैं, तो मुझे बहुत बुरा लगा, उनके बोलने के अंदाज़ में वो अभिमान और सम्मान नहीं था जो पापा के 'इंडिया' बोलने में होता है" 

माँ और दादी दोनों ही स्तब्ध रह गयी।

"बेटा, अगर तुम, अपनी क्लास मैं फेल हो जाओ तो क्या मैं और दादी, घर-घर जाकर लोगो से तुम्हारी बुराई करेंगे?

"नहीं माँ आप तो चाहोगे की मैं ज्यादा अच्छे से पढू, आप मुझ पर ज्यादा ध्यान दोगे, मुझे मोटीवेट भी करोगे"

"और जब तू अच्छे अंको से पास हो जायेगी तो मिठाई भी बाटेंगे", दादी ने चुटकी ली।

"पता है नन्ही, हम लोग ऐसा क्यों करेंगे? क्योंकि तू हमारी अपनी है, हमारा परिवार है, इसलिए हम निंदा करने के बजाय, तुम्हारी मदद करेंगे ताकि तुम बेहतर बनो और यहीं हमारी खुशियों का बहाना बनेगा। 

"बेटा ये बहुत बड़ी त्रासदी है की लोग अपने देश को अपना परिवार नहीं समझते, नहीं तो व्यंग कसने के बजाय उस चीज़ को सुधारते और गरूर करते। वो समझे ना समझे पर देश तो उन्हें अपना मानता हैं, माँ की तरह बिना शर्त अपनी गोद मैं खिलाता है, पिता की तरह जिंदगी भर अपने साए में महफूज़ रखता हैं, मिटटी से मिटटी तक का सफ़र साकार करता हैं। कभी कोई अपने माँ-बाप को किसी से कम्पेयर नहीं करता फिर ये लोग देश को और उसके विकास को किसी दुसरे देश से क्यों नापते है?" 

आर्डर आया है, सुबह 5 बजे उत्तराखंड के लिए कूच करना है, लाखों जाने फंसी है केदारनाथ में। अर्जुन सिंह 4 बजे ही मुस्तैद हो गए। भारी बारिश और भूस्खलन के बाद केदारनाथ में हजारो-लाखो लोग मलबो में फंसे, मदद का इंतजार कर रहे है। नेता अपनी-अपनी जीभ की नुमाइश कर रहे है। मीडिया अलग अलग मन बहलाऊ तरीके से खबरे दे रहा है। इन सबके बीच स्थानीय लोग और भारतीय सेना फरिश्तो का फ़र्ज़ निभा रही है। 

तीन-चार दिनों में विरोधी मौसम के बावजूद हजारो लोगो को सुरक्षित निकाल लिया गया फिर भी स्थिति बदत्तर होती जा रही है। वहां का वीभत्स दृश्य अकल्पनीय हैं हर तरफ लाशें ऐसे फैली है की खुद के जिन्दा होने पर भी संदेह हो जाए। अर्जुन एक मासूम चीत्कार की तरफ दौड़ा, उधर एक हाथ मलबे से बाहर आने को है, हाथ पकड़ कर खींचा, हाथ उखड कर हाथों में ही रह गया, कलेजा सन्न हो गया, लाशें क्षत-विक्षत होने के साथ-2 गंदे पानी में सड़ चुकी है। विदीर्ण हृदय के साथ उस हाथ को धीरे से भूमि पर रख दिया। वज्राघात तो अभी बाकि था, "ये क्या हाथ की एक अंगुली तो ताज़ा कटी हुयी है, हे इश्वर किसी राक्षस ने अंगूठी के लिए…" 

वापस वहीँ करुण 'चीख', उस पुकार की दिशा में झाडियों के पीछे गया वहां एक बेसुधसा बच्चा छटपटा रहा था, उसने ऊँगली से ईशारा किया, अर्जुन ने पलट कर देखा, "पूरी स्कूल बस ही उलटी पड़ी है", घर को अपनी रौनक से महका देने वाले बच्चो की लाशो से भंयकर दुर्गन्ध आ रही थी। "हे महादेव कैसी बेरुखी हैं और क्या-क्या देखना रह गया मुझे" बच्चे को गोद मैं ले कर राहत शिविर की तरफ दौड़ा।

उधर नन्ही के गाँव के बड़े मंदिर में धार्मिक कार्यकर्म उन्माद पर हैं, बाहर जुलुस की तैयारी हैं, हाथी, घोड़े, बाजे-गाजे, ढोल-मंजीरा, मिठाई-फूल, झंडे-झंडियां सभी बच्चो के लिए कौतुहल का सबब बनी हुयी हैं। भक्तजन का अलौकिक आन्नद चरम पर है। नृत्य, भजन-गान के इस माहौल मैं हर कोई यति - योगी जान पड़ता हैं। 

अनायास उत्सवी उल्लास के वातावरण में खलल हुआ, किसी अनैतिक तत्व ने जुलुस पर कचरा फ़ेंक दिया। निठ्ठले हुडदंगियो को मौका मिला। कभी शिव लिंग पर जल नहीं चढ़ाया; आज धर्म के नाम पर मासूमों पर चढ़ाई को तत्पर है। कभी कुरान को छुआ नहीं आज हाथ से तलवारे नहीं छूट रही। सोते गाँव में तांडव जाग उठा, दंगाइयों ने घर फूँक दिए, सपने जला दिए।

उधर केदारनाथ धाम में आधी रात को भी अर्जुन के अरमान नहीं बुझे। "अंकल!", मदद के लिए चीख-चीख कर थके हुए गले से आई इस थर्रायी हुयी आवाज़ ने अर्जुन को भी कंपा दिया। "मेरे बाबा उधर पत्थर के नीचे दबे है" पीछे खड़े लगभग 12 साल के लड़के ने एक तरफ इशारा करते हुए कहाँ। बूढा शरीर संवेंदना शुन्य आँखों से मौत की बाट जोह रहा था। 

"आप घबराइए नहीं मैं अभी आपको निकाल लूँगा।",बाबा के दोनों पैरो पर चट्टान आ गिरी है, सारा दर्द 3 दिन में बह कर जम गया। अर्जुन ने शरीर में बचे शक्ति के आखरी ज़र्रे का इस्तेमाल करते हुए चट्टान को एक तरफ धकेल दिया। बूढ़े बाबा को लगा 'वर्दी में भगवान' आए है। 

माँ ने नन्ही को गोद में लिया और जलते मकान से झुलसते हुए हुए जिंदगी की दिशा मैं भागी, नन्ही की दादी सुबह ही शहर अपने भाई के यहाँ चली गयी थी। "मम्मी अब हम कहाँ जायेंगे, वो लोग तो सामने वाले रास्ते में भी है", "बेटा तू इस बड़े पाइप में छुप जा, मैं उस पेड़ के पीछे चली जाती हूँ; घबराना मत मैं यही हूँ"। 
दंगाईयो की राह भटक गयी एक गोली, माँ के ममतामयी दिल से जा चिपकी, अंतिम बार नन्ही को देखने की हसरत दिल में समेटे, कटे वृक्ष की भांति निष्प्राण धरती पर आ गिरी। 

कैसी बिडम्बना है एक तरफ नन्ही के पापा रक्षक बन लोगो की दुआए लूट रहे हैं, दूसरी और किसी हैवान ने उसकी मम्मी को दुआ कबूल करने के वाले खुदा के पास भेज दिया। नन्ही की आँखे ऊपर चढ़ गयी, कलेजा फट जा रहा था, अँधेरी सिसकती रात में उसे माँ की लाश के पास बैठे देख, धर्म के मर्म से बेगाने पशुओ के दिल तो नहीं लेकिन आस-पास के पत्थर जरूर भी पिघल गए ह़ोंगे। 

अर्जुन सिंह गाँव पहुंचा, फ़र्ज़ के लिए पसीने की जगह खून बहाना उन्हें कभी नागवार ना हुआ लेकिन आज रक्त अश्रु की वेदना असह्य प्रतीत हो रही है। नन्ही दौड़ कर पापा से लिपट गई। आँखों में अथाह वेदना, निस्तेज चेहरा देख कर उस शूरवीर का शरीर भी जर्द हो गया। पापा के घर आने का उन्माद, दुःख के आवेश में विलीन हो गया। पापा ने नन्ही के सर पर हाथ फेरा, माँ की कमी को कैसे झुठलाऊ, आँखे फूल गयी है; लेश्मात्र भी आशंका नहीं थी की प्रियतम यूँ मझधार मैं छोड़ जायेगी। 

दो मोटी बूंदे, नन्ही के गालो से लुढ़कती हुयी, पापा के हाथों में समा गयी, अर्जुन के हृदय पर नश्तर चलने लगा। वो सोच मैं पड़ गया "बिना माँ के बच्चा ब्रह्माण्ड में अकेला होता हैं, माँ साथ हो तो पूरी दुनिया पास होती हैं। बच्चे की तोतली बोली जग के लिए भले ही हंसी का कारण हो लेकिन माँ के लिए मुस्कुराने का बहाना होती है। मनपसंद पकवान खा कर निंदिया मग्न बच्चे को कहाँ ध्यान की माँ ने ये रात भी फाको से गुजारी है। रेलगाड़ी के इंजन का तेज भोंपू भी दिन भर की भाग-दौड़ के बाद गहन निंद्रा से माँ को जगा पाने में विफल है वहीँ बच्चे का सूक्ष्म क्रंदन सौ कदम की दूरी से माँ को खीच लाता है, कैसे रहेगी नन्ही अब माँ के बगैर?"


तू माँ है मेरी, मैं हूँ तेरा गुरुर,
क्यों छोड़ा अकेला, मेरा क्या कसूर।

माँ कह देना, तू आएगी जरूर,
नादां हूँ मैं थोड़ी, ना रहना यूँ दूर।

तू कहती हैं ना, बेटा तू हैं मेरा नूर,
क्यों रूठी हैं माँ तू, क्या हो गयी भूल।


सात साल गुज़र गए।

"नन्ही, बेटा इतनी सुबह-सुबह कहा जा रही हो?, 15 दिनों के लिए ही आया हूँ, पापा के पास भी तो बैठो थोड़ी देर"
"पापा बस अभी दो घंटे मैं आई, फिर सारा दिन ढेर सारी बातें करेंगे "कहते-कहते नहीं ने स्कूटी स्टार्ट की।

"बेटा, मंदिर के पास वाले मैदान में तीन महीने पहले करीब 150 पोधे लगाए थे, रोज़ सुबह जा कर उन्ही को पानी देकर आती है; कहती है दादी, पूरे गाँव को फिर से हरा-भरा कर दूंगी" 

"माँ, कुए के पास जो कच्चा रास्ता था, वहां भी तो नन्ही ने सरकारी ऑफिस में चक्कर लगा-लगा कर पक्की सड़क बनवा दी, अब तो बिजली वाले भी डरते है बार-बार बिजली काटने से, कहीं नन्ही आ कर धरना ना दे दे"

"तूझे पता नहीं, शाम को सरपंच जी के आँगन में गाँव की बुजुर्ग औरतो और पुरुषो को पढ़ाती है, कभी-कभी तो मुझे भी खींच ले जाती है। 

"एक दिन कह रही थी, दादी, मेरी माँ नहीं रही तो क्या, मेरी भारतमाँ तो हमेशा मेरे साथ रहेगी, मैं अपने मातृभूमि को माँ की तरह प्यार करती रहूंगी। देश और देशवासी उन्नत रहे यही मेरा ध्येय है; और फिर मेरी भारतमाँ को कोई विकृत धर्म का ठेकेदार भी मुझसे छीन नहीं सकता क्योंकि इसका कोई एक 'धर्म' जो नहीं है, यह तो हिन्दू भी हैं और मुस्लिम भी"

"भारत माँ की इस बेटी को सलाम" अर्जुन ने सजल नेत्रों से कहा। 

रचियता: कपिल  चाण्डक 
Author: Kapil Chandak



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Thursday, July 18, 2013

टिफ़िन चोर (कहानी)


रोहन, रोहन उठो, जल्दी करो स्कूल बस आने वाली है। रोहन ने मम्मी की आवाज सुन कर अपनी छोटी छोटी पलके खोली। खिड़की से बाहर देखा, "ये आसमां पर ढेरो रुई का ढेर कौन रख जाता है कभी लगता है जैसे बहुत सी भेड़े किसी ने मैदान पर खुली छोड़ दी हो, लगता आज बारिश होगी।"

सात साल का रोहन दूसरी कक्षा का छात्र है। आज बड़ा उत्साहित है अपने सहपाठी स्पर्श को अपने नये स्कूल बैग की नुमाइश जो करनी है। कुछ देर बाद बस रुकी, स्पर्श अपनी मम्मी को बाय करता हुआ बस पर चढ़ गया और उसकी नज़रे बस में बैठे सभी चेहरो की मुस्कान को रसीद देते हुए रोहन पर ठिठक गयी। भाग कर रोहन द्वारा रोकी हुयी सीट पर बैठते ही नए बैग का अभिमुल्यन करते हुए अपनी जेब से एक लिफाफा निकालता हैं। 

रोहन: "ये क्या है"? 
स्पर्श: "ये लैटर है पापा ने कहा था की स्कूल के बाहर जो रेड पोस्ट बॉक्स है उसमे डाल देना, दादाजी को लिखा है।"
रोहन: "स्पर्श ये लैटर कैसे सही पते पर पहुँच जाता है?"
स्पर्श: "हर पोस्ट बॉक्स के नीचे सुरंग होती है जहाँ से लैटर फिसलता हुआ आपके गाँव चला जाता है।"
रोहन: "लेकिन उसे पता कैसे चलता है की कहाँ जाना है, दादी के घर जाना है या नाना के गाँव?"
स्पर्श: "क्या यार ये भी नहीं पता! जब पेट में दर्द होता है तो दवाई लेने पर पेट दर्द ही ठीक होता है, वही दवाई दांत में दर्द होने पर दांत के दर्द को ठीक करती है, क्योंकि दवाई को पता होता है की पेट में जाना है या दांत में। ऐसे ही लैटर पर पता लिखा होता है इसलिए लैटर को पता होता है की कहा जाना है।" 

द्वितीय कालांश (पीरियड) में गणित के अध्यापक ने अपनी अकर्मण्यता पर लीपापोती करने के लिए उदघोष किया की आज सभी बच्चे होम वर्क क्लास में ही कर ले ताकि घर पर होने वाली ग़फ़लतो की समीक्षा यही हो सके (ताकि अध्यापक थोडा आराम कर सके)। बच्चो को और क्या चाहिए, 'अध्यापक और छात्र', दोनों ही पक्ष एक ही अनुयोजन से आनन्दित होते है की पढाई ना हो, तो फिर ऐसा प्रतिदिन क्यों नहीं होता? स्पर्श ने रोहन को अपन टिफिन खोल कर बताया की उसकी मम्मी ने आज उसके लिए उसके पसंदीदा कूकीज और चॉकलेट रोल्स रखे है। अब स्पर्श के साथ रोहन भी लंच ब्रेक का अधीरता से इंतज़ार करने लगा।सभी बच्चो के कानो मैं सुरीली मध्यांतर की घंटी गूंजी, एक साथ सधे कदम कक्षा के दरवाजे की तरफ तीव्रता से बढे मानो कोई अदृशय शक्ति उनका संचालन कर रही हो, सारे आपसी मन-मुटाव जो पिछले चार कालांशो से फल फूल रहे थे, पानी के बुलबुलों की तरह बिखर गए। रोहन और स्पर्श भी हाथ-मुहँ धो कर कक्षा में आये ताकि उनके आज के ध्येय की पूर्ति कूकीज और चॉकलेट रोल्स खा कर पूरी हो सके।

"ये क्या मेरा लंच कहाँ है, अभी तो टिफिन मैं था अब कहाँ गया?" स्पर्श बोखलाया। उसके टिफिन से खाना अलोप हो चूका था। सरगर्मी बढ़ गयी हुजूम इकठ्ठा हो गया दूर-दूर की कक्षाओ और अनुभागो (सेक्सन) से बच्चे आने लगे, कोई सहानुभूति देता, कोई कौतुहल व्यक्त करता तो कोई ठिठोली करता और कोई-कोई तो नेतागिरी से भी बाज नहीं आया। क्लास टीचर के दखल के बाद बच्चो के मनोरंजन के इस कारण पर रोक लगी, आगे से एहतियात रखने के हिदायत के साथ स्पर्श को, रोहन और बाकी बच्चो के खाने को साँझा करने के लिए कहा गया। 

अगले दिन मध्यांतर में टिफिन खोला गया, खाना फिर से नदारद! अब ये कोई संयोग नहीं हो सकता, पूरी कक्षा सकते में आ गयी, अचरज ये था की दुसरे दिन भी स्पर्श का ही खाना गायब क्यों हुआ जबकि और भी तो टिफिन थे वहां। स्पर्श को रोना आ गया, रोहन और बाकि बच्चो ने दिलासा दी। स्कूल प्रशासन ने इसे गंभीरता से लिया। चाक-चोबंदी बढ़ गयी। कुछ बच्चे जो टीवी पर प्रसारित होने वाले डिटेक्टिव सीरियल 'सुपर सिक्स' से प्रभावित थे ने आपस में गोपनीय जत्था तैयार किया गया जो लंच-ब्रेक में छुप कर निगरानी करेगा की इस कौतुक का स्वामी कौन है। जत्थे के छात्र लंच-ब्रेक में खेल-कूद के साथ-साथ कुछ समय के अंतर से कमरे के बाहर मंडराने लगे। 

स्कूल का चपरासी इधर-उधर तांक-झाँक करने के बाद सीधे कमरे में चला गया और वहां रखें स्पर्श के टिफिन को हाथ में उठा लिया। 
"चोर चोर चोर", गोपनीय जत्थे के बच्चे एक साथ चिल्लाते हुए कमरे में आ धमके, चपरासी का चेहरा रंगहीन हो गया, लडखडाई जुबां को सँभालते हुए बोला, क्या हुआ? मैंने क्या किया?
"आपने स्पर्श का खाना चुराया है" 
"नहीं, मैं नहीं हूँ खाना चोर, मैं तो केवल ये देखने आया था की खाना आज भी चोरी हुआ या नहीं"
" नहीं आप झूठ बोल रहे हो देखो आपके मुह पर अभी भी खाना लगा है और टिफिन में भी खाना नहीं है"
"मैं अपना लंच लेने के बाद ही यहाँ आया था, जल्दबाजी मैं मुह साफ़ नहीं किया और खाना तो पहले से गायब था, मुझे भी टिफिन खोलने पर मालूम चला" 

बात प्रधानाचार्य तक पहुंची, चपरासी को आड़े हाथो लिया गया। बच्चो को कुछ दिनों के लिए कयास लगाने और मस्तीखोरी करते हुए ढींगबाज़ी का बहाना मिल गया था। स्कूल के बाहर पहाड़ भी टूट जाए तो बच्चे इस घटना को उपेक्षित कर देते है लेकिन स्कूल के अन्दर सुई भी गिर जाए तो अंतहीन ठहाके लगने लगते है। जांच पड़ताल करने पर चपरासी को इस आधार पर छोड़ दिया गया की जब कल वो अवकाश पर था तब भी लंच ब्रेक में खाना गायब हुआ था। और अगले दिन भी (चपरासी के पकडे जाने के बाद का दिन) स्पर्श का लंच गायब हैं! यानी गुनहगार कोई और ही है।

रोहन ने घर पर अपने 11 वर्षीया भाई को इस विषय में बताया। उसका बड़ा भाई कपिल जिसे खुफियागिरी और अटपटी बातों में कुछ ज्यादा दिलचस्मी थी, उसने सम्भावना व्यक्त की हो सकता है मंगल गृह से एलियंस धरती पर कब्ज़ा करने के इरादे से आ पहुंचे हो और उनका पहला निशाना तुम्हरा स्कूल हो, उसके बाद धीरे-धीरे उनका आतंक पूरी दुनिया पर फ़ैल जाएगा और किसी का भी खाना कभी भी गायब हो जाएगा।
"भैया अब हम क्या करे" 
"तू घबरा मत, मैंने एक मूवी में देखा था की एलियंस से कैसे निपटा जाता है, लेकिन तुझे अब चौकन्ना रहना होगा क्योंकि हम चारो ओर से घिर चुके है, कभी भी मारे जा सकते है।"
"भैया मुझे डर लग रहा है"
"अब बात बहुत आगे निकल चुकी है, डरने का वक़्त अब ख़त्म हुआ, अब हम दोनों के कंधो पर पूरी दुनिया की जिम्मेदारी है, दुनिया को बचाना है"

रोहन समझ नहीं पा रहा था की दुनिया बचाए या स्पर्श का खाना। अभी होमवर्क भी तो करना है, होमवर्क करने के बाद दुनिया की चिंता करना ठीक रहेगा। एलियंस धरती पर कब्ज़ा कर ले तो अच्छा ही रहेगा, कम से कम ये होमेवर्क से तो पीछा छुटेगा, कोई इतना होमवर्क भी देता है क्या? घर के सामने चाय वाला कितना 'लकी' है, बरगद के पेड़ के नीचे चाय की स्टाल हैं दिन भर मजे से बैठता है ना स्कूल जाने का प्रेशर ना होमवर्क का हौव्वा। आने जाने वालो को चाय पिलाता है, चुस्कीयो के साथ देश-विदेश के किस्से चलते रहते है, कभी भूत-प्रेत की बाते कभी गाँव के मेले या किसी ज़माने के राजा की शादी के भव्यता की चर्चा, कितना मज़ा आता है, पैसे कमाता है वो अलग। यहाँ दिन रात आँखे फोड़ते रहो, आने जाने वाले भी सलाह देते रहते है बेटा खूब पढ़ा करो, पढने की उम्र है। बर्फ से ठंडी रातों में (सुबह जल्दी) उठना पड़ता हैं पहले पीरियड से ही लंच-ब्रेक और लंच-ब्रेक के बाद छूट्टी का इंतज़ार रहता है। अभी एक एग्जाम कम्पलीट भी नहीं होता की दुसरे का टाइम टेबल मिल जाता गर्मियों की छुट्टियों में भी होमवर्क का भूत पीछे लगा देते हैं।

अगले दिन बस में रोहन, स्पर्श से मिला, विचारशील बातें हुयी।
स्पर्श: "क्या आज भी मेरा लंच चोरी हो जाएगा या चोर का पता चलेगा?, मैंने तो अभी तक डर के कारण मम्मी को नहीं बताया, हा मेरी दीदी (जो 12 साल की है) को बताया तो उसने कहा की खाने में नींद की दवाई मिला दो, जो खायेगा उसे नींद आ जायेगी और पकड़ा जाएगा, ये आईडिया उन्हें एक टीवी सीरियल से आया था, लेकिन नींद की दवाई कहाँ से आये?" 

रोहन: "मेरे भैया बता रहे थे की ये सब एलियंस कर रहे है, एलियंस के बारे में उन्होंने टीवी पर देखा था, मुझे समझ नहीं आता की लोग इतनी छोटी टीवी के अन्दर कैसे घुस जाते है, एक बार मम्मी-पापा बाहर गए थे तो मेरे भैया ने ये देखने के लिए पीछे से टीवी खोल दिया था, पर वहां कोई नहीं दिखा, मम्मी पापा की डांट के बाद भैया भी कई दिनों तक टीवी के पास नहीं दिखे हा हा हा।"

आज गोपनीय जत्थे का नामकरण दिवस है। गुपचुप तरीके से सुझाव लिए जा रहे है। हर तरफ गहमा-गहमी है की खाना चोर कौन है? कब पकड़ा जाएगा? स्पर्श के लंच के पीछे ही क्यों पड़ा है? 'खाना चोर' परम मसालेदार विषयो के श्रेणी मैं आ चुका था। 

गोपनीय जत्थे ने आज बिसात बिछा दी, पीछे वाली बेंच के नीचे एक बच्चा छुप कर बैठ गया, एक दरवाजे के पीछे खड़ा है, कक्षा के सभी बच्चो के लंच बॉक्स बेग से निकाल कर सजा कर रख दिए, कुछ एक के तो टिफिन के ढ़क्कन भी हटा दिए, कक्षा के बाहर से भी निगरानी के पूरे इंतजामात कर दिए गए। आज तो शिकार फंसेगा। हाथी की मदमस्ती में विशाल कमरे में आया और पहले से ढक्कन हटे हुए बॉक्स में से एक चम्मच पुलाव मुहँ के हवाले करने ही वाला था की अप्रत्याशित जन्मदिवस समारोह की तरह पूरा कमरा रौशनी के झमाके के साथ गूँज उठा। विशाल पकड़ा गया!

"मुझे क्यों पकड़ा है मैंने क्या किया"
"हम सब ने तुम्हे रंगे हाथों पकड़ा हैं, तुम ने जिस टिफ़िन से पुलाव लिए थे वो तुम्हारा नहीं था, फिर तुमने क्यों लिए?"
"माना ये मेरा टिफ़िन नहीं है पर अब जब कोई ढक्कन हटा कर इतने स्वादिष्ट खाना सजा कर रखेगा तो किसका मन नहीं ललचाएगा की एक चम्मच टेस्ट तो करे, खाना सिर्फ स्पर्श का चोरी होता है और फिर ये स्पर्श का टिफ़िन भी तो नहीं है।" 

लगा जाल मैं फंसी मछली हाथ से फिसल कर फिर से पानी में कूद गयी, गोपनीय जत्थे का नाम 'फ्लाइंग आईज' फाइनल हुआ। छुट्टी के बाद रोहन रेडियो पर बज रहा गीत गुनगुनाता है " चौधरी का चाँद है या किताब हो" स्पर्श को हंसी आ गयी। "ये क्या गा रहा है, पहले मैं भी चौधरी का चाँद ही समझता था एक दिन पापा ने बताया की 'चौहदवी का चाँद है या आफ़ताब हो' होता है। माहौल में हल्कापन आ गया। 

रोहन: "तू अपने पापा से बहुत क्लोज है" 
स्पर्श: "हां कई बार जब मैं पढाई करता हूँ तो पापा भी मेरे साथ पढने लग जाते है, पापा भी तो कोई एग्जाम की तैयारी कर रहे है, कहते है की एग्जाम क्लियर करने पर प्रमोशन हो जाएगा।" 
रोहन: "क्या अंकल अभी तक पढाई करते है, हे भगवान क्या मैं 30-35 साल तक पढता रहूँगा क्या? कितनी अजीब बात है की हम अपनी आधी जिंदगी स्कूल, कॉलेज के अन्दर ये सीखने में बिता देते है की हमें बाकि बची आधी जिंदगी को बाहर कैसे जीना है हा हा हा।"

अगले दिन दोनों बस से स्कूल आ रहे थे, रोहन ने गौर किया की स्पर्श अपना खाना रहस्यमयी रूप से बस की खिड़की के बाहर फैंक रहा है।
"ये क्या कर रहे हो स्पर्श, इसका मतलब तू रोज़ अपना खाना बस के बाहर फैंक देता है, और कलंक किसी काल्पनिक खाना चोर पर लगा देते है"

"सॉरी रोहन, प्लीज किसी को मत बताना"
"लेकिन तू ऐसा क्यों करता है"

"मेरी मम्मी मुझे पोषक खाने का हवाला देते हुए,कद्दू, पालक, घीये आदि की सब्जी देती है, जो मुझे पसंद नहीं, बचा हुआ खाना घर ले जाता हु तो डांट पड़ती है, एक दिन जब खाना वाकई मैं चोरी हो गया था और टीचर ने कहा की रोहन और बाकी लोगो का खाना शेयर कर लो, तब मुझे लगा की मेरे अलावा बाकी बच्चे कितना यम्मी खाना लाते है, साथ ही इतनी वैरायटी भी मिल गयी, इसलिए मैंने ये सब शुरू किया ताकि मुझे घर से लाया खाना खाने की बजाय रोज़ ये सब खाने को मिले। लेकिन मुझे आज तक ये समझ में नहीं आया की उस दिन तो मेरा फ़ेवरेट चॉकलेट रोल्स और कूकीज थे वो किसने चोरी किये थे।"

"वो मेने चोरी किये थे" रोहन मुस्कुराया। 


रचियता: कपिल  चाण्डक 
Author: Kapil Chandak



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Saturday, July 6, 2013

पापा मेरे (कहानी)

'पापा मेरे' टिफिन पैक कर रहे थे छोटे भाई के लिए। साल 2001 के मई महीने का एक और गर्म दिन था। पापा अभी आये ही थे कड़ी धुप से जंग का निशान अभी भी चेहरे पर था। मम्मी ने मध्याहन भोजन के लिए पुछा, पापा ने कहा पहले मोनू (मेरा छोटा भाई) को खाना दे आऊ दुकान पर, उसे भूख लग रही होगी।

साल 2013 का मई का महिना, मंथ एंड क्लोजिंग के कारण देर रात को घर पहुंचा। राधिका (मेरी पत्नी और सबसे अच्छी दोस्त ) रात 3 बजे भी मेरे इंतज़ार में जग रही थी अपनी मुस्कराहट से मेरा स्वागत करने के लिए। तय हुआ की मैं थोडा देर से उठूँगा ताकि नींद अच्छे से पूरी हो सके। सुबह 6 :30 बजे मेरी करीब दो साल की बेटी ने कानो में मिश्री घोली, "उत जाओ पापा उत जाओ ना" लगा शायद किसी ने स्वर्ग का दरवाजा खुला छोड़ दिया, उसके छोटे छोटे हाथ मेरे चेहरे को सहला रहे थे जो हर बार चेहरे पर एक नयी चमक और सुकून छोड़ रहे थे। उसकी मम्मी ने कहा बेटा पापा को सोने दो पापा को निन्नी आ रही है। लेकिन उसकी मीठी मुस्कान देखने का लोभ मैं नहीं छोड़ सकता था जो पूरे दिन की थकान को ठेंगा दिखा देती है। 

मैं चौराहे पर देर तक खड़ा रहता था की पापा आने वाले है और फिर वो मुझे गोदी मैं उठा कर घर तक लायेंगे। पापा ने बहुत बार समझाया की इस तरह बाहर इंतज़ार मत किया करो मुझे कभी-कभी देरी हो जाती है और फिर मैं घर के अन्दर ही तो आऊंगा लेकिन वो उमड़ता हुआ प्यार पाना और साथ मैं लायी हुयी चीज का रहस्य सबसे पहले जान कर ज्यादा बड़े हिस्से का दावेदार बनने का अवसर मैं क्यों छोड़ता भला। पापा की थाली में पापा के साथ खाना लेना, इससे स्वादिष्ट और क्या होगा। पापा दही में मीठा लेते थे, मुझे भी मीठा दही पसंद था। मम्मी पापा की रोटी को दो बार तह करती थी जिसका उसका आकर त्रिभुज जैसा हो जाता था, मैं इस तरह के आकर वाली रोटी को पापा की रोटी कहता था और अक्सर जिद करता था की मुझे 'पापा की रोटी' बना कर दो। 

मेरी बिटिया (2013) 
अब सुबह जल्दी उठ कर तैयार हो जाता हूँ इसलिए नहीं की ऑफिस समय पर पहुंचू , बल्कि नास्ता जल्दी मिल सके (मैं ज्यादा देर भूखा नहीं रह सकता) और मेरी छोटी गुडिया के साथ इसे साँझा कर सकू। ट्वीटी (मेरी प्यारी बिटिया) को खाना उसकी मम्मी ही खिलाती है लेकिन उसे अपने पापा के साथ खाना पसंद है। हर वो चीज़ जो मुझे पसंद है वही उसको भी पसंद है भले ही वो निस्वाद ही क्यों न हो। छोटे छोटे टुकड़े करके उसे खिलाते समय आनंद और गर्व की ऐसी अनुभूति होती हैं जो किसी राजा को आस-पास के सभी राज्य जितने पर होती होगी। इस बीच कभी कभी वो अपने छोटे छोटे हाथो से रोटी का एक टुकड़ा ले कर जिस पर कभी भी सब्जी लगाना नहीं भूलती मेरे मुह मैं रखते हुए कहती है "पापा आप खाओ" मानो भगवान बाल रूप में स्वयं अपना प्यार खाने में परोस रहे हैं।

पापा हमेशा से ही अपने दोस्तों के मध्य सर्वप्रिय रहे है। दोस्तों का आना जाना लगा रहता था। अपने दोस्तों से घिरे हुए, पीठ थपथपाते हुए मेरी उपलब्धिया, (उनकी नजरो मैं) स्वभाव, समझदारी, ज्ञान का सविस्तार वर्णन करते हुए थकते नहीं थे। उन पलो मैं अहसास होता था की मैं ब्रह्माण्ड का सबसे अच्छा बच्चा हूँ। उनकी इसी धारणा ने मेरे अबोध मन मैं इस विश्वास को साकार करने के बीज बो दिए थे। उत्साहित रहता था इसी कल्पना मैं की मुझे सबसे अच्छा पुत्र, भाई, मित्र, विद्यार्थी और इंसान बनना हैं और यही मेरा परम ध्येय था। मुझे ले कर जो मान्यता पापा ने बनायीं और जो प्यार बरसाया उसने एक ढाल की तरह मुझे हर विसंगतियों, और गुणहीन वस्तुओ से बचाए रखा। उनकी गर्वित आखों की प्रसन्नता को मुझे और भी महाकाय करना था सम्पूर्ण जीवनकाल के लिए। शायद यही एक तरीका था की मुझे मिली मीठी जीवनदायनी नदी जैसे स्नेह मैं से एक लोटा मीठा कृतज्ञ जल वापस कर पाँउ।

बेटी मेरी बहुत शरारती है दिन भर मस्ती और धूम धडाका करती रहती है साथ ही चतुर और बुद्धिमान तो है ही। अपनी उम्र के मुकाबले बहुत आगे है कुछ हरकतें तो उसकी हैरान कर देने वाली है अभी दो साल की भी नहीं है और मेरे ऑफिस जाते समय कहती है "पापा ध्यान से जाना, जल्दी आना" और फिर हाथ पकड़ कर दरवाजे तक लाती है, "पापा शूज पहनो" "पापा अब जाओ" "बाय". उसे पता है की जब पापा ऑफिस जाते है तो जिद नहीं करते और साथ में जाने के लिए रोते भी नहीं है लेकिन ऑफिस के अलावा पापा कही और जाते है तो फिर ट्वीटी को घर पर रोक पाना 11 मुल्को की पुलिस के लिए भी मुमकिन नहीं है। उसे पता है की जब ब्लैक ड्रेस पहनते है तो ब्लैक सेंडिल पहननी चाहिए। उसे पता है की जब मम्मी के फ़ोन पर ये वाली रिंगटोन बजती है तो पापा ने ही कॉल किया है। वो नहीं भूलती दोपहर में मम्मी से जिद करके पापा को कॉल करवाना है और खूब सारी बात बताना है "पापा नहाई नहाई कर ली में" "पापा काऊ मम खा गयी" "पापा बलून लाना"।

मेरा एक छोटा भाई और बड़ी बहन है हम तीनो ही मम्मी से ज्यादा पापा के लाडले थे।चुस्की के लिए पैसा मांगना हो या मेले में तमाशा देखना हो, सारे दावे पापा से ही करते थे। हम तीनो को पापा के बहुत ज्यादा प्यार और ख्याल की लत पड़ गयी थी। बड़े हो जाने पर भी हमारे सारे काम जो हमसे अपेक्षित थे पापा कर देते थे। हम असावधान और बेफ़िक्र रहते थे। छुटपन में कभी कभी बिना खाना खाए नींद आ जाती थी तो पापा जगा कर खाना खिला कर ही सुलाते थे। शाम को मम्मी की शिकायतों की लम्बी फेहरिश्त तैयार रखते थे। घर में कुछ आता था तो सबसे पहले बच्चो में बंटता था। हम लोग एक मिठाई जिस के हम उम्मीदवार थे सबसे पहले खा लेते थे, एक चुरा लेते थे और एक पापा की दरियादिली का फायदा उठा कर हड़प लेते थे। इस तरह "एक का तीन" में हमारी गहन श्रद्धा थी। पापा से पड़ोस और रिश्तेदारों के बच्चे, सभी घुलेमिले थे।

जब ट्वीटी ने नया-नया बैठना सीखा तो मैं उसके चारो और रुई के तकियों का किला खड़ा कर देता था ताकि वो उसे भेद कर चोट न लगा ले, सोते समय बेड पर तकियों का अटूट तिलिस्म बना देता था जिसे तोड़ कर वो नीचे ना गिर आये। चलने लगी तो घर का डेकोरम बदल दिया ताकि करंट, नुकीली चीजो आदि से बचाव होता रहे। हालाँकि ये सब सामान्य लेकिन मैं इतना ज्यादा इन्वोल्व हो जाता था की लोग मुझे छेड़ते भी थे, की बच्चे तो हमने भी पाले है, गिरते पड़ते ही सब बड़े होते है, बच्चो में डर होना चाहिए, रोज़ घुमा कर लाओगे तो इसे घूमने की आदत पद जायेगी। अब आदत पड़ जायेगी तो उसके पापा है न घुमाने के लिए रोज़, उसके पापा को भी तो आदत पड़ गयी अपनी नन्ही पारी को घुमी-घुमी कराने की। मैं ऐसा पिता नहीं हु जो बच्चो को लाड प्यार में बिगाड़ दे। मैं तो वो पिता जो अपने बच्चो को पलकों पर रखता है और दिल में उमड़ रहे प्यार को पूरा उड़ेल देता है साथ ही जो सुनिश्चित करता है की बच्चा संस्कारी, समझदार, स्वाभिमानी होने के साथ मासूमियत भरी शरारते, मस्ती और बचपना कभी ना भूले जो उसकी खुशियों का स्रोत है।
पापा मेरे, मैं और मेरी बहन (1984)

साल 2007 में मम्मी पापा को किसी काम से हमारे पैतृक गाँव सांभर जाना पड़ा। देर रात को मेरे ताउजी के बड़े पुत्र का कॉल आया की पापा की तबियत बहुत ख़राब है। मेरा दिल सन्न हो गया, मैंने कहा आप उन्हें सबसे अच्छे डॉक्टर के लेकर जाओ, जल्दी करो, मुझे बताओ। कई बार बात हुयी। उस रात बरसात बहुत तेज थी सांभर में, कोई भी डॉक्टर आने को तैयार नहीं था। मैं फ़ोन पर मरता रहा, हाथ फैलाता रहा। करीब 3 घंटे बाद भैया ने कहा तुम सब लोग आ जाओ जल्दी, मैंने पूछा अब तबियत कैसी है, जयपुर से तो जाते समय बिलकुल ठीक थे, कोई बीमारी भी नहीं है, अच्छे भले गए थे, भैया ने कहा की बस आ जाओ, तुम समझदार हो समझ जाओ। मैं समझ गया की पूरी दुनिया अब ख़त्म हो गयी। लगा किसी ने अँधेरी खाई मैं धक्का मार दिया। मैं छोटा भाई, दीदी, जीजाजी हम सब सांभर भागे। हम तीनो बच्चे पापा के पास उनके अंतिम समय में नहीं थे, मम्मी ने बताया पापा बार-बार तुम लोगो के लिए पूछते रहे लेकिन कोई नहीं था। ये बात जिंदगी भर कचोटती रहेगी। वहा की हर चीज से नफरत हो गयी, 12 दिन बाद वहा से लोटा तो दिल पर पत्थर था आज भी है। कुछ सबसे ज्यादा अनमोल वही रह गया था, छीन लिया था उस जगह ने मुझसे। महीनो तक यकीं नहीं हुआ। रोज़ लगता था की बहुत बुरा सपना है अभी टूटने वाला है। आखों के आंसू घर पहुँचने से पहले सूख जाए इसके लिए ऑफिस से आते समय पंद्रह मिनट का रास्ता डेढ़ घंटे का होने लगा। पहले स्वाभाव में स्वछंदता और चंचलता थी, क्योंकि हर बात को सँभालने के लिए पापा थे। अब सब जिम्मेदारी मेरे ऊपर है मैं किससे कहूँ। जो प्यार मिला था उसे लौटाने का समय आ ही नहीं पाया। इस बात का अफ़सोस दुनिया के अंतिम दिन तक रहेगा। आज भी सपने में पापा आते है तो नींद से जाग जाने का अफ़सोस होता है। 

समय थोडा आगे बढ़ा ऐसा लगता था की आसमान का रंग ही काला हो गया है, अब नौकरी मैं अच्छा इन्क्रीमेंट या प्रमोशन हो जाए तो भी क्या? एग्जाम मैं अच्छे मार्क्स आ जायेंगे तो भी कौन पीठ थपथपाएगा? कोई भी उपलब्धि अब किसके लिए? लगा बड़ा हो गया। फिर निश्चय किया की पापा का बेटा हूँ मैं फिर ऐसा क्यों सोच रहा हु, अब मुझे ही पापा के सारे काम करने है। पापा का प्यार आसमान से बहता हुआ मेरे दिल में संचित हो रहा है उसे लुटाना है अपनों पर, परिवार को संवारना है, सब के लिए सब कुछ बनना है। 

आज हर दिन यही कोशिश है की सबसे अच्छा बेटा, भाई, पति और इंसान बनू और दूसरा सबसे अच्छा पिता क्योंकि पहले तो मेरे पापा ही रहेंगे। भगवान ने इस सजा को कम करने के लिए जो बेटी उपहार में दी है चाहूँगा की जब उससे पुछा जाए की बेटा कौन है आपका सबसे अच्छा दोस्त तो उसके दिल से यही निकले 'पापा मेरे'


"नन्ही-नन्ही पलकों में जो डिबिया बंद है, मानो सपनो की घडिया चंद है, 
तारो की चमक कहकशा से कुछ मंद है, हंसती सेहर का है अब इंतज़ार,
सच्ची-झूठी दुनिया का जो रंग है, नन्हे कदमो के बड़ा होने की जंग है,
बचपन की ख़ुशी-रौनक संग है, बुजुर्गो की दुआओ को है बेक़रार।

मीठी-मीठी थपकी जो मिल जाए, पूरा बचपन ही संवर जाए,
नए-नए खिलोने भी कम भाये, गर सुरीली लोरियों मैं मिले प्यार,
छोटी-छोटी ऊँगली जो थाम ले, पुकारे तो प्यार से अनेको नाम ले,
सुनहरा बचपन है सामने जो गोदी और कंधो पर मिले दुलार।" 


में और मेरी बेटी (2013) 


रचियता: कपिल  चाण्डक 
Author: Kapil Chandak
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