'पापा मेरे' टिफिन पैक कर रहे थे छोटे भाई के लिए। साल 2001 के मई महीने का एक और गर्म दिन था। पापा अभी आये ही थे कड़ी धुप से जंग का निशान अभी भी चेहरे पर था। मम्मी ने मध्याहन भोजन के लिए पुछा, पापा ने कहा पहले मोनू (मेरा छोटा भाई) को खाना दे आऊ दुकान पर, उसे भूख लग रही होगी।
साल 2013 का मई का महिना, मंथ एंड क्लोजिंग के कारण देर रात को घर पहुंचा। राधिका (मेरी पत्नी और सबसे अच्छी दोस्त ) रात 3 बजे भी मेरे इंतज़ार में जग रही थी अपनी मुस्कराहट से मेरा स्वागत करने के लिए। तय हुआ की मैं थोडा देर से उठूँगा ताकि नींद अच्छे से पूरी हो सके। सुबह 6 :30 बजे मेरी करीब दो साल की बेटी ने कानो में मिश्री घोली, "उत जाओ पापा उत जाओ ना" लगा शायद किसी ने स्वर्ग का दरवाजा खुला छोड़ दिया, उसके छोटे छोटे हाथ मेरे चेहरे को सहला रहे थे जो हर बार चेहरे पर एक नयी चमक और सुकून छोड़ रहे थे। उसकी मम्मी ने कहा बेटा पापा को सोने दो पापा को निन्नी आ रही है। लेकिन उसकी मीठी मुस्कान देखने का लोभ मैं नहीं छोड़ सकता था जो पूरे दिन की थकान को ठेंगा दिखा देती है।
मैं चौराहे पर देर तक खड़ा रहता था की पापा आने वाले है और फिर वो मुझे गोदी मैं उठा कर घर तक लायेंगे। पापा ने बहुत बार समझाया की इस तरह बाहर इंतज़ार मत किया करो मुझे कभी-कभी देरी हो जाती है और फिर मैं घर के अन्दर ही तो आऊंगा लेकिन वो उमड़ता हुआ प्यार पाना और साथ मैं लायी हुयी चीज का रहस्य सबसे पहले जान कर ज्यादा बड़े हिस्से का दावेदार बनने का अवसर मैं क्यों छोड़ता भला। पापा की थाली में पापा के साथ खाना लेना, इससे स्वादिष्ट और क्या होगा। पापा दही में मीठा लेते थे, मुझे भी मीठा दही पसंद था। मम्मी पापा की रोटी को दो बार तह करती थी जिसका उसका आकर त्रिभुज जैसा हो जाता था, मैं इस तरह के आकर वाली रोटी को पापा की रोटी कहता था और अक्सर जिद करता था की मुझे 'पापा की रोटी' बना कर दो।
मेरी बिटिया (2013) |
अब सुबह जल्दी उठ कर तैयार हो जाता हूँ इसलिए नहीं की ऑफिस समय पर पहुंचू , बल्कि नास्ता जल्दी मिल सके (मैं ज्यादा देर भूखा नहीं रह सकता) और मेरी छोटी गुडिया के साथ इसे साँझा कर सकू। ट्वीटी (मेरी प्यारी बिटिया) को खाना उसकी मम्मी ही खिलाती है लेकिन उसे अपने पापा के साथ खाना पसंद है। हर वो चीज़ जो मुझे पसंद है वही उसको भी पसंद है भले ही वो निस्वाद ही क्यों न हो। छोटे छोटे टुकड़े करके उसे खिलाते समय आनंद और गर्व की ऐसी अनुभूति होती हैं जो किसी राजा को आस-पास के सभी राज्य जितने पर होती होगी। इस बीच कभी कभी वो अपने छोटे छोटे हाथो से रोटी का एक टुकड़ा ले कर जिस पर कभी भी सब्जी लगाना नहीं भूलती मेरे मुह मैं रखते हुए कहती है "पापा आप खाओ" मानो भगवान बाल रूप में स्वयं अपना प्यार खाने में परोस रहे हैं।
पापा हमेशा से ही अपने दोस्तों के मध्य सर्वप्रिय रहे है। दोस्तों का आना जाना लगा रहता था। अपने दोस्तों से घिरे हुए, पीठ थपथपाते हुए मेरी उपलब्धिया, (उनकी नजरो मैं) स्वभाव, समझदारी, ज्ञान का सविस्तार वर्णन करते हुए थकते नहीं थे। उन पलो मैं अहसास होता था की मैं ब्रह्माण्ड का सबसे अच्छा बच्चा हूँ। उनकी इसी धारणा ने मेरे अबोध मन मैं इस विश्वास को साकार करने के बीज बो दिए थे। उत्साहित रहता था इसी कल्पना मैं की मुझे सबसे अच्छा पुत्र, भाई, मित्र, विद्यार्थी और इंसान बनना हैं और यही मेरा परम ध्येय था। मुझे ले कर जो मान्यता पापा ने बनायीं और जो प्यार बरसाया उसने एक ढाल की तरह मुझे हर विसंगतियों, और गुणहीन वस्तुओ से बचाए रखा। उनकी गर्वित आखों की प्रसन्नता को मुझे और भी महाकाय करना था सम्पूर्ण जीवनकाल के लिए। शायद यही एक तरीका था की मुझे मिली मीठी जीवनदायनी नदी जैसे स्नेह मैं से एक लोटा मीठा कृतज्ञ जल वापस कर पाँउ।
बेटी मेरी बहुत शरारती है दिन भर मस्ती और धूम धडाका करती रहती है साथ ही चतुर और बुद्धिमान तो है ही। अपनी उम्र के मुकाबले बहुत आगे है कुछ हरकतें तो उसकी हैरान कर देने वाली है अभी दो साल की भी नहीं है और मेरे ऑफिस जाते समय कहती है "पापा ध्यान से जाना, जल्दी आना" और फिर हाथ पकड़ कर दरवाजे तक लाती है, "पापा शूज पहनो" "पापा अब जाओ" "बाय". उसे पता है की जब पापा ऑफिस जाते है तो जिद नहीं करते और साथ में जाने के लिए रोते भी नहीं है लेकिन ऑफिस के अलावा पापा कही और जाते है तो फिर ट्वीटी को घर पर रोक पाना 11 मुल्को की पुलिस के लिए भी मुमकिन नहीं है। उसे पता है की जब ब्लैक ड्रेस पहनते है तो ब्लैक सेंडिल पहननी चाहिए। उसे पता है की जब मम्मी के फ़ोन पर ये वाली रिंगटोन बजती है तो पापा ने ही कॉल किया है। वो नहीं भूलती दोपहर में मम्मी से जिद करके पापा को कॉल करवाना है और खूब सारी बात बताना है "पापा नहाई नहाई कर ली में" "पापा काऊ मम खा गयी" "पापा बलून लाना"।
मेरा एक छोटा भाई और बड़ी बहन है हम तीनो ही मम्मी से ज्यादा पापा के लाडले थे।चुस्की के लिए पैसा मांगना हो या मेले में तमाशा देखना हो, सारे दावे पापा से ही करते थे। हम तीनो को पापा के बहुत ज्यादा प्यार और ख्याल की लत पड़ गयी थी। बड़े हो जाने पर भी हमारे सारे काम जो हमसे अपेक्षित थे पापा कर देते थे। हम असावधान और बेफ़िक्र रहते थे। छुटपन में कभी कभी बिना खाना खाए नींद आ जाती थी तो पापा जगा कर खाना खिला कर ही सुलाते थे। शाम को मम्मी की शिकायतों की लम्बी फेहरिश्त तैयार रखते थे। घर में कुछ आता था तो सबसे पहले बच्चो में बंटता था। हम लोग एक मिठाई जिस के हम उम्मीदवार थे सबसे पहले खा लेते थे, एक चुरा लेते थे और एक पापा की दरियादिली का फायदा उठा कर हड़प लेते थे। इस तरह "एक का तीन" में हमारी गहन श्रद्धा थी। पापा से पड़ोस और रिश्तेदारों के बच्चे, सभी घुलेमिले थे।
जब ट्वीटी ने नया-नया बैठना सीखा तो मैं उसके चारो और रुई के तकियों का किला खड़ा कर देता था ताकि वो उसे भेद कर चोट न लगा ले, सोते समय बेड पर तकियों का अटूट तिलिस्म बना देता था जिसे तोड़ कर वो नीचे ना गिर आये। चलने लगी तो घर का डेकोरम बदल दिया ताकि करंट, नुकीली चीजो आदि से बचाव होता रहे। हालाँकि ये सब सामान्य लेकिन मैं इतना ज्यादा इन्वोल्व हो जाता था की लोग मुझे छेड़ते भी थे, की बच्चे तो हमने भी पाले है, गिरते पड़ते ही सब बड़े होते है, बच्चो में डर होना चाहिए, रोज़ घुमा कर लाओगे तो इसे घूमने की आदत पद जायेगी। अब आदत पड़ जायेगी तो उसके पापा है न घुमाने के लिए रोज़, उसके पापा को भी तो आदत पड़ गयी अपनी नन्ही पारी को घुमी-घुमी कराने की। मैं ऐसा पिता नहीं हु जो बच्चो को लाड प्यार में बिगाड़ दे। मैं तो वो पिता जो अपने बच्चो को पलकों पर रखता है और दिल में उमड़ रहे प्यार को पूरा उड़ेल देता है साथ ही जो सुनिश्चित करता है की बच्चा संस्कारी, समझदार, स्वाभिमानी होने के साथ मासूमियत भरी शरारते, मस्ती और बचपना कभी ना भूले जो उसकी खुशियों का स्रोत है।
पापा हमेशा से ही अपने दोस्तों के मध्य सर्वप्रिय रहे है। दोस्तों का आना जाना लगा रहता था। अपने दोस्तों से घिरे हुए, पीठ थपथपाते हुए मेरी उपलब्धिया, (उनकी नजरो मैं) स्वभाव, समझदारी, ज्ञान का सविस्तार वर्णन करते हुए थकते नहीं थे। उन पलो मैं अहसास होता था की मैं ब्रह्माण्ड का सबसे अच्छा बच्चा हूँ। उनकी इसी धारणा ने मेरे अबोध मन मैं इस विश्वास को साकार करने के बीज बो दिए थे। उत्साहित रहता था इसी कल्पना मैं की मुझे सबसे अच्छा पुत्र, भाई, मित्र, विद्यार्थी और इंसान बनना हैं और यही मेरा परम ध्येय था। मुझे ले कर जो मान्यता पापा ने बनायीं और जो प्यार बरसाया उसने एक ढाल की तरह मुझे हर विसंगतियों, और गुणहीन वस्तुओ से बचाए रखा। उनकी गर्वित आखों की प्रसन्नता को मुझे और भी महाकाय करना था सम्पूर्ण जीवनकाल के लिए। शायद यही एक तरीका था की मुझे मिली मीठी जीवनदायनी नदी जैसे स्नेह मैं से एक लोटा मीठा कृतज्ञ जल वापस कर पाँउ।
बेटी मेरी बहुत शरारती है दिन भर मस्ती और धूम धडाका करती रहती है साथ ही चतुर और बुद्धिमान तो है ही। अपनी उम्र के मुकाबले बहुत आगे है कुछ हरकतें तो उसकी हैरान कर देने वाली है अभी दो साल की भी नहीं है और मेरे ऑफिस जाते समय कहती है "पापा ध्यान से जाना, जल्दी आना" और फिर हाथ पकड़ कर दरवाजे तक लाती है, "पापा शूज पहनो" "पापा अब जाओ" "बाय". उसे पता है की जब पापा ऑफिस जाते है तो जिद नहीं करते और साथ में जाने के लिए रोते भी नहीं है लेकिन ऑफिस के अलावा पापा कही और जाते है तो फिर ट्वीटी को घर पर रोक पाना 11 मुल्को की पुलिस के लिए भी मुमकिन नहीं है। उसे पता है की जब ब्लैक ड्रेस पहनते है तो ब्लैक सेंडिल पहननी चाहिए। उसे पता है की जब मम्मी के फ़ोन पर ये वाली रिंगटोन बजती है तो पापा ने ही कॉल किया है। वो नहीं भूलती दोपहर में मम्मी से जिद करके पापा को कॉल करवाना है और खूब सारी बात बताना है "पापा नहाई नहाई कर ली में" "पापा काऊ मम खा गयी" "पापा बलून लाना"।
मेरा एक छोटा भाई और बड़ी बहन है हम तीनो ही मम्मी से ज्यादा पापा के लाडले थे।चुस्की के लिए पैसा मांगना हो या मेले में तमाशा देखना हो, सारे दावे पापा से ही करते थे। हम तीनो को पापा के बहुत ज्यादा प्यार और ख्याल की लत पड़ गयी थी। बड़े हो जाने पर भी हमारे सारे काम जो हमसे अपेक्षित थे पापा कर देते थे। हम असावधान और बेफ़िक्र रहते थे। छुटपन में कभी कभी बिना खाना खाए नींद आ जाती थी तो पापा जगा कर खाना खिला कर ही सुलाते थे। शाम को मम्मी की शिकायतों की लम्बी फेहरिश्त तैयार रखते थे। घर में कुछ आता था तो सबसे पहले बच्चो में बंटता था। हम लोग एक मिठाई जिस के हम उम्मीदवार थे सबसे पहले खा लेते थे, एक चुरा लेते थे और एक पापा की दरियादिली का फायदा उठा कर हड़प लेते थे। इस तरह "एक का तीन" में हमारी गहन श्रद्धा थी। पापा से पड़ोस और रिश्तेदारों के बच्चे, सभी घुलेमिले थे।
जब ट्वीटी ने नया-नया बैठना सीखा तो मैं उसके चारो और रुई के तकियों का किला खड़ा कर देता था ताकि वो उसे भेद कर चोट न लगा ले, सोते समय बेड पर तकियों का अटूट तिलिस्म बना देता था जिसे तोड़ कर वो नीचे ना गिर आये। चलने लगी तो घर का डेकोरम बदल दिया ताकि करंट, नुकीली चीजो आदि से बचाव होता रहे। हालाँकि ये सब सामान्य लेकिन मैं इतना ज्यादा इन्वोल्व हो जाता था की लोग मुझे छेड़ते भी थे, की बच्चे तो हमने भी पाले है, गिरते पड़ते ही सब बड़े होते है, बच्चो में डर होना चाहिए, रोज़ घुमा कर लाओगे तो इसे घूमने की आदत पद जायेगी। अब आदत पड़ जायेगी तो उसके पापा है न घुमाने के लिए रोज़, उसके पापा को भी तो आदत पड़ गयी अपनी नन्ही पारी को घुमी-घुमी कराने की। मैं ऐसा पिता नहीं हु जो बच्चो को लाड प्यार में बिगाड़ दे। मैं तो वो पिता जो अपने बच्चो को पलकों पर रखता है और दिल में उमड़ रहे प्यार को पूरा उड़ेल देता है साथ ही जो सुनिश्चित करता है की बच्चा संस्कारी, समझदार, स्वाभिमानी होने के साथ मासूमियत भरी शरारते, मस्ती और बचपना कभी ना भूले जो उसकी खुशियों का स्रोत है।
पापा मेरे, मैं और मेरी बहन (1984) |
साल 2007 में मम्मी पापा को किसी काम से हमारे पैतृक गाँव सांभर जाना पड़ा। देर रात को मेरे ताउजी के बड़े पुत्र का कॉल आया की पापा की तबियत बहुत ख़राब है। मेरा दिल सन्न हो गया, मैंने कहा आप उन्हें सबसे अच्छे डॉक्टर के लेकर जाओ, जल्दी करो, मुझे बताओ। कई बार बात हुयी। उस रात बरसात बहुत तेज थी सांभर में, कोई भी डॉक्टर आने को तैयार नहीं था। मैं फ़ोन पर मरता रहा, हाथ फैलाता रहा। करीब 3 घंटे बाद भैया ने कहा तुम सब लोग आ जाओ जल्दी, मैंने पूछा अब तबियत कैसी है, जयपुर से तो जाते समय बिलकुल ठीक थे, कोई बीमारी भी नहीं है, अच्छे भले गए थे, भैया ने कहा की बस आ जाओ, तुम समझदार हो समझ जाओ। मैं समझ गया की पूरी दुनिया अब ख़त्म हो गयी। लगा किसी ने अँधेरी खाई मैं धक्का मार दिया। मैं छोटा भाई, दीदी, जीजाजी हम सब सांभर भागे। हम तीनो बच्चे पापा के पास उनके अंतिम समय में नहीं थे, मम्मी ने बताया पापा बार-बार तुम लोगो के लिए पूछते रहे लेकिन कोई नहीं था। ये बात जिंदगी भर कचोटती रहेगी। वहा की हर चीज से नफरत हो गयी, 12 दिन बाद वहा से लोटा तो दिल पर पत्थर था आज भी है। कुछ सबसे ज्यादा अनमोल वही रह गया था, छीन लिया था उस जगह ने मुझसे। महीनो तक यकीं नहीं हुआ। रोज़ लगता था की बहुत बुरा सपना है अभी टूटने वाला है। आखों के आंसू घर पहुँचने से पहले सूख जाए इसके लिए ऑफिस से आते समय पंद्रह मिनट का रास्ता डेढ़ घंटे का होने लगा। पहले स्वाभाव में स्वछंदता और चंचलता थी, क्योंकि हर बात को सँभालने के लिए पापा थे। अब सब जिम्मेदारी मेरे ऊपर है मैं किससे कहूँ। जो प्यार मिला था उसे लौटाने का समय आ ही नहीं पाया। इस बात का अफ़सोस दुनिया के अंतिम दिन तक रहेगा। आज भी सपने में पापा आते है तो नींद से जाग जाने का अफ़सोस होता है।
समय थोडा आगे बढ़ा ऐसा लगता था की आसमान का रंग ही काला हो गया है, अब नौकरी मैं अच्छा इन्क्रीमेंट या प्रमोशन हो जाए तो भी क्या? एग्जाम मैं अच्छे मार्क्स आ जायेंगे तो भी कौन पीठ थपथपाएगा? कोई भी उपलब्धि अब किसके लिए? लगा बड़ा हो गया। फिर निश्चय किया की पापा का बेटा हूँ मैं फिर ऐसा क्यों सोच रहा हु, अब मुझे ही पापा के सारे काम करने है। पापा का प्यार आसमान से बहता हुआ मेरे दिल में संचित हो रहा है उसे लुटाना है अपनों पर, परिवार को संवारना है, सब के लिए सब कुछ बनना है।
आज हर दिन यही कोशिश है की सबसे अच्छा बेटा, भाई, पति और इंसान बनू और दूसरा सबसे अच्छा पिता क्योंकि पहले तो मेरे पापा ही रहेंगे। भगवान ने इस सजा को कम करने के लिए जो बेटी उपहार में दी है चाहूँगा की जब उससे पुछा जाए की बेटा कौन है आपका सबसे अच्छा दोस्त तो उसके दिल से यही निकले 'पापा मेरे'
"नन्ही-नन्ही पलकों में जो डिबिया बंद है, मानो सपनो की घडिया चंद है,
तारो की चमक कहकशा से कुछ मंद है, हंसती सेहर का है अब इंतज़ार,
सच्ची-झूठी दुनिया का जो रंग है, नन्हे कदमो के बड़ा होने की जंग है,
बचपन की ख़ुशी-रौनक संग है, बुजुर्गो की दुआओ को है बेक़रार।
मीठी-मीठी थपकी जो मिल जाए, पूरा बचपन ही संवर जाए,
नए-नए खिलोने भी कम भाये, गर सुरीली लोरियों मैं मिले प्यार,
छोटी-छोटी ऊँगली जो थाम ले, पुकारे तो प्यार से अनेको नाम ले,
रचियता: कपिल चाण्डक
Author: Kapil Chandak
2 comments:
bhut sunder kapil ji.....
bhut hi sunder kapil ji
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