Wednesday, November 23, 2016

बेघर (आपकी मदद इन्हे घर पंहुचा सकती है।)


चार दिन पहले ऑफिस जाते समय बेनाड रोड से दिल्ली बायपास के करीब ये बुजुर्ग सड़क किनारे बैठे आती-जाती गाड़ियों को हाथो से रोकने का ईशारा करते दिखें, मैं ऑफिस के लिए हमेशा की तरह लेट हो रहा था, मैंने भी गाडी नहीं रोकी। करीब 100 मीटर आगे आने के बाद मन नहीं माना, वापस पीछे गया। मुझे गाडी से उतरते देख ये बुजुर्ग अपना मैला सा भारी लगने वाला बैग उठा कर मेरी तरफ रेंगते से बढे, मैं दौड़ कर पंहुचा, पूछा की उन्हें क्या चाहिए? वो गाड़ियों को क्यों रोक रहे हैं? उनकी हालात बहुत दयनीय थी, शायद कई दिनों से नहाये नहीं थे, आस पास तेज दुर्गन्ध भभक रही थी, दोनों आखों में मोतियाबिंद था, ना तो ढंग से खड़े हो पा रहे थे ना ही बोल पा रहे थे। उन्होंने मेरे हर सवाल को लगभग अनसुना करते हुए टूटी अस्पष्ट आवाज में पुछा की मैं उन्होंने घर पंहुचा दू। मैंने कई बार पूछा आपका घर कहा हैं? कोई गली, कोई शहर कुछ भी याद आ रहा है? हर बार वही बुझी हताश सी आवाज में जवाब आता की मुझे घर जाना है। मैंने आस-पास भागते लोगो को रोककर पूछा की शायद वो उनकी बोली या आवाज समझ पाए। लोगो की प्रतिक्रिया अनपेक्षित थी, "सर ये पागल है" "आप किसके चक्कर में पड़ गए". 

थोड़े अतंराल के बाद उन अंकल ने लड़खड़ाई आवाज में कहा "अखड़डाम जाना हैं"! 

"अक्षरधाम", मैंने इसमें सुधार किया। "आप अक्षर धाम टेम्पल की बात कर रहे हो जो वैशाली नगर मैं है?" 

उन्होंने हां की दिशा में सर हिला दिया। 

"हाँ अखड़डाम पहुंचा दो, वहाँ से मैं घर चला जाऊंगा, पास में हैं घर वह से" उन्होंने कहा। 

मैंने उनका बैग उठाया और उन्होंने गाडी मैं बैठाया। पूरे रास्ते पूछता रहा की "अक्षरधाम के आस-पास ही घर हैं ना, आप के घर मैं और कौन-2 है? आप कब से घर नहीं गए? आप को कुछ भी याद है तो बताईये" लेकिन उनके होंठो से एक शब्द भी नहीं फिसला। 

करीब आधे घंटे में अक्षरधाम आया, मैं सहर्ष बोला अंकल मंदिर आ गया। 

"ये नहीं है, चलो घर चलो" अंकल बोले। मैं असमंजस में पड़ गया, "अंकल आपने ही तो कहा था अक्षरधाम जो वैशाली नगर मैं है, यही तो है, अगर ये नहीं है तो मुझे थोड़ा सा पता बताईये मैं छोड़ दूंगा"

उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया, मैं देर तक अलग अलग तरह से पूछता रहा, लेकिन वो मौन ही रहे, फिर कहा की मुझे यही छोड़ दो, मैं समझ गया की उन्हें नहीं पता की उनका घर कहा हैं, हैं भी या नहीं ये भी नहीं पता। मैंने खाने के लिए पूछा उन्होंने मन कर दिया, उनकी जेब में कुछ रुपये रख कर, मैं अकेला ऑफिस के लिए निकल गया। काम की व्यस्तता के बीच बीच मैं उनका चेहरा सामने आता रहा। आज चार दिन हो गए मन कुछ ख़राब सा हो गया। पता नहीं उन्होंने कभी अपना घर और घर वाले भी मिलेंगे या नहीं। इस पोस्ट को पढ़ने वाला कोई भी रीडर अगर इन्हें पहचानता हो तो प्लीज आगे आये, इनको मदद की बहुत ज्यादा जरूरत है। ये आपको अभी जयपुर के वैशाली नगर मैं अक्षर धाम मंदिर के आस पास मिल सकते है।

या मुझे से संपर्क करे

कपिल चांडक (Kapil Chandak)

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